जगन्नाथजी की अधूरी मूर्ति का रहस्य: आखिर क्यों नहीं हुए भगवान, बलभद्र और सुभद्रा पूर्ण?

पुरी, ओडिशा: ओडिशा के पुरी स्थित विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर सिर्फ अपनी भव्य रथ यात्रा के लिए ही नहीं, बल्कि भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की अधूरी मूर्तियों के लिए भी जाना जाता है। इन मूर्तियों में हाथ और पैर नहीं हैं, जो इन्हें अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से बिल्कुल अलग बनाता है। इसके पीछे कई पौराणिक कथाएं और गहरा दार्शनिक महत्व छिपा है।

पौराणिक कथा: अधूरा कार्य और राजा की अधीरता

सबसे प्रचलित कथा के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण ने जब अपना शरीर त्याग दिया, तब पांडवों ने उनका अंतिम संस्कार किया। माना जाता है कि उनके शरीर का बाकी हिस्सा तो पंचतत्व में विलीन हो गया, लेकिन उनका हृदय (ब्रह्म पदार्थ) बचा रहा। यह हृदय आज भी भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में धड़कता माना जाता है।

एक बार, राजा इंद्रद्युम्न ने भगवान विष्णु के नीलमणि स्वरूप की मूर्ति बनाने का संकल्प लिया। स्वयं भगवान विश्वकर्मा, एक वृद्ध बढ़ई (कारीगर) का रूप धारण कर, मूर्तियों के निर्माण के लिए आए। उन्होंने राजा के सामने एक शर्त रखी: वे 21 दिन में मूर्तियों का निर्माण पूरा कर देंगे, लेकिन इस दौरान कोई भी उनके काम में बाधा नहीं डालेगा और कमरे का दरवाज़ा नहीं खोलेगा। राजा ने शर्त मान ली और भीतर से आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाज़ें आती रहीं।

कई दिनों तक आवाज़ें आती रहीं, लेकिन एक दिन अचानक अंदर से कोई आवाज़ नहीं आई। राजा इंद्रद्युम्न को लगा कि विश्वकर्मा काम छोड़कर चले गए हैं या उन्हें कुछ हो गया है। अपनी अधीरता पर काबू न रख पाने के कारण, राजा ने समय से पहले ही दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही विश्वकर्मा अंतर्धान हो गए, और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ अधूरी ही रह गईं। जगन्नाथ जी और बलभद्र जी के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन टाँगें नहीं थीं, जबकि सुभद्रा जी के हाथ-पाँव बने ही नहीं थे।

राजा को अपनी गलती का बहुत पछतावा हुआ, लेकिन तभी भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और कहा कि वे इसी अधूरे स्वरूप में पृथ्वीलोक पर वास करना चाहते हैं। तभी से ये मूर्तियाँ इसी अधूरी अवस्था में स्थापित हैं और पूजी जाती हैं।


दार्शनिक महत्व: पूर्णता में अपूर्णता का संदेश

पौराणिक कथा के अलावा, इन अधूरी मूर्तियों का एक गहरा दार्शनिक महत्व भी है:

  • ब्रह्म का निराकार स्वरूप: कुछ विद्वान मानते हैं कि यह अधूरापन ब्रह्म के निराकार और असीमित स्वरूप को दर्शाता है। ईश्वर सर्वव्यापी और अनंत हैं, उन्हें किसी भी मानवीय आकार या रूप में सीमित नहीं किया जा सकता। यह बताता है कि ईश्वर किसी एक रूप या क्रिया के मोहताज नहीं, वे संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हैं।
  • माया और संसार की अपूर्णता: यह मूर्तियाँ हमें इस बात की भी याद दिलाती हैं कि यह भौतिक संसार नश्वर और अपूर्ण है। इस दुनिया में कोई भी चीज़ पूर्ण नहीं है, हर चीज़ में कुछ न कुछ अधूरापन है, जो हमें भौतिकता से परे आध्यात्मिक पूर्णता की ओर जाने के लिए प्रेरित करता है।
  • सर्वव्यापी और अनासक्त स्वरूप: भगवान जगन्नाथ के बड़े, गोल नेत्र उनके सर्वदर्शी स्वरूप को दर्शाते हैं, जो पूरे ब्रह्मांड को निहारते हैं और हर जीवात्मा की पीड़ा को समझते हैं। बिना हाथ-पैरों के भी वे अपने भक्तों को आशीर्वाद दे सकते हैं और उनका पालन कर सकते हैं, जो उनकी अनासक्ति और सर्वव्यापी शक्ति का प्रतीक है।

हर साल होने वाली भव्य रथ यात्रा में इन्हीं अधूरी मूर्तियों को रथ पर बैठाकर नगर भ्रमण कराया जाता है, जो भक्तों के लिए एक अद्वितीय और रहस्यमय अनुभव होता है। यह अधूरापन ही भगवान जगन्नाथ के स्वरूप को और अधिक विलक्षण और गहरा बनाता है।∎