रमाशंकर यादव 'विद्रोही', JNU का एक कवि, न केवल कवि, छात्र, और आम आदमी के दिमाग में एक विचार बोने वाला आदमी। 1980 में एक छात्र बनकर दाखिला लिया। तीन साल के अंदर ही लेफ्ट स्टूडेंट पॉलिटिक्स में हिस्सा लिया ओर 1983 में ही उन्हें यूनिवर्सिटी से निष्काषित कर दिया गया। उस समय से लगभग 30 साल से भी ज्यादा तक jnu परिसर में उन्होंने बिताए, या कहें jnu को 20 साल तक कविता करने की दिशा दी। कई लेखों में, उनके परिचय में उन्हीं मानसिक रूप से कुछ अस्वस्थ बताया गया है पर jnu में रहते हुए इतने लंबे समय के चलते विद्रोही के मानस को जो क्षति पहुंची उससे उनकी स्थिति को स्वाभाविक समझा जा सकता है।
17 अगस्त, 2010 को 'विद्रोही' एक और बार jnu से अभद्र तरीके से निकाला गया। और इस तरह जवाहरलाल यूनिवर्सिटी ने एक कवि खो दिया। 'विद्रोही' का जन्म 5 दिसंबर 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले के आहिरी फ़िरोज़पुर ग्राम में हुआ था।
विद्रोही के कविता सुनने के अंदाज़ निराला रहा था, उनकी वाक्पटुता से पूरा परिसर आनंदरंजित हो उठता और उन्हें घेर लेता। उनकी कविताओं में प्रकट प्रगतिशील चेतना उन्हें जनसंवाद और प्रतिरोध का कवि बनाती थी। जब दिसंबर 2015 में जेएनयू के ‘ऑक्युपाई यूजीसी’ आंदोलन के दौरान भी वह सक्रिय रहे थे। इसी क्रम में जंतर-मंतर में आयोजित विरोध मार्च से लौटकर जब वह सोए तो फिर उठ न सके।
उन पर बनी एक डॉक्यूमेंटरी 'मैं तुम्हारा कवि हूँ' में उनके स्वर सुने जा सकते हैं। उसी डॉक्यूमेंटरी की रील्स अपने कई बार अपनी इंस्टाग्राम या किसी अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर देखी हों, ऐसा संभव है।
वे कहते हैं "दिल्ली हमें बहुत पसंद है, इसे हम अपना शहर समझते हैं, दिल्ली, जैसे रज़िया सुल्तान है"।विद्रोही अपने स्वरों को दबाने वाले कवि नहीं थे, ये एक सर्वमान्य विचार है, उन्होंने सरकार का और जिसका चाहा उसका खुल कर विरोध किया। उनकी कविताओं को सुन कर लगता है वे त्रस्त हैं अपने जीवन में और समाज मैंने फैली अनचाही राजनीति से, जिसका उन्होंने खुलकर खंडन किया तो उन्हें निष्कासित किया गया।
विद्रोही से पूछा गया आप jnu में पढ़ते हैं, जिस पर वे कहते हैं पढ़ते हैं! लोगों का मानना है, jnu में विद्रोही जी नहीं रहे हैं, विद्रोही जी में jnu का एक जंगल है, कुछ क्लास रूम है, कैन्टीन है, लाइब्रेरी हैं, जहां न केवल स्टूडेंट पड़ते हैं, बल्कि अपना विचार विकसित करते हैं।
विद्रोही ने काभी अपनी कविताओं को किसी अपने जीवन की तरह खुला छोड़ दिया, फिर चाहे वे आसमान छूएँ, या जमीन में धँसजाएं, दुष्यंत कुमार जी का एक शेर है कि "मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।" कुछ इसी तरह विद्रोही जी की ज़िंदगी रही है, आप चाहे इसे उनके जीवन की त्रासदी कहें या जो भी, वे इससे प्रभावित नहीं होंगे!
वे कविता पाठ देख कर नहीं करते थे, अपनी स्मृतशक्ति से ही सुनते, कई बार एक ही कविता शुरू से अंत तक, कई बार जैसे जैसे जो याद आ जाए।
समालोचना पर प्रकाशित अरुण देव के लेख में वे लिखते हैं "उनकी कविताएँ इस अर्ध सामन्ती–अर्ध पूंजीवादी, ज्ञान और संवेदना से लगभग च्युत किसी भी तार्किकता के प्रति हिंसक समाज में रह रहे एक अकेले व्यक्ति के रूपक की तरह खुलती थीं. उनके थोड़े से चाहने और सराहने वाले लोग थे, प्रबुद्ध माने जाने वाले विश्वविद्यालय जैसी जगह में भी उन्हें खदेड़ा ही जाता रहा. उनके होने को संदेह से देखा जाता था. उनकी कविताएँ और उनके विचारों से यह आसानी से समझा जा सकता है कि यह कवि राजनीतिक रूप से कितना चेतनशील था"
उनका एक कविता संग्रह नयी खेती नाम से, 'नावारुण' प्रकाशन से छपी है, इस पुस्तक पर जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण लिखते हैं
विद्रोही के व्यक्तित्व और उनकी कविताओं को चाहना शहराती और ‘अपवर्डली मोबाइल’ संवेदना के लोगों के लिए मुश्किल है. चाहे वे स्वयं साहित्य के सर्जक ही क्यों न हों। जब तक ऐसे लोग अपने भीतर झाँक कर अपनी आलोचना का रुख न अपनाएँ, विद्रोही से वे घृणा या हद से हद ईर्ष्या ही कर सकते हैं। दूसरी ओर हमने देखा कि पिछले साल पटना में जब विद्रोही गाँधी मैदान के इर्द-गिर्द चौराहों पर अपनी कविताएँ सुना चुके तो ठेले, खोमचे रखने वाले और दूसरे मेहनतकश जानना चाहते थे कि यह कवि कौन था, जो हमारी बातें कर रहा था।”
लोक के कवि, विद्रोही, jnu परिसर से स्वर उठाते हुए आगे बढ़े, और 2015 में मृत्यु को पा गए, लेकिन जिस समय वे कविता का सुर बांधते आस पास के लोग बांध जाते, कई लोगों ने उनकी आवाज दबाने की जब जब कोशिश की तब तब उन्होंने अपने आवाज़ और बुलंद की। जिसने भी उनको कविता बाँचते सुना है, उसने इस बुलंदी को ज़रूर महसूस किया है।
हिन्दी भाषा और साहित्य का ये दुर्भाग्य है कि यहाँ कवि व लेखक मरते पहले हैं और और तब उन्हें ख्याति मिलती है, जीते हुए केवल दुर्गति। यही विद्रोही के साथ हुआ। जनकवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ वर्तमान हिंदी कविता के समानान्तर एक बोहेमियन कवि साबित हुए। उनकी लोकप्रियता का पता हिंदी समाज को उनकी मृत्यु पर चला जब उनका नाम सोशल मीडिया के महत्त्वपूर्ण मंच फ़ेसबुक पर ट्रेंड कर रहा था।
हिन्दी साहित्य में ऐसे कवि कम ही हुए हैं जो समाज से टकराते हैं, और बार बार टकराते हैं, सत्ता के बने बनाए ढाँचों का खुल कर विरोध करना, अरुण देव मानते हैं कि 'उनकी कविताओं में मध्यवर्गीय रूपवादी शाब्दिक कलाभ्रम का अभाव है, जो वास्तव में वृद्ध पूँजीवाद की परछाई है। इनमें वर्तमान कवि-कर्म की वह सजगता भी नहीं है जो कवि को पुरस्कार-सम्मान और सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाती है।इन सब के स्थान पर एक खाँटीपन है, एक बेपरवाही है जो इस बात का प्रमाण देती है कि विद्रोही ख़ालिस जनकवि हैं।'
‘औरतें’ कविता पुरुष कवि की मुखर और ठोस स्त्री-प्रतिरोध की रचना है. इस कविता में पितृसत्ता सोच का नग्न चित्रण किया गया है। पितृसत्ता को पुरुषों के बनाए इस धर्म और उसके ईश्वर के साथ-साथ पुरुषों की राजनीतिक सत्ताओं का भी सहारा मिलता है। इसी कारण पितृसत्ता इतिहास और वर्तमान में शक्तिशाली दिखाई देती है, इसी, धर्म, ईश्वर, राजनीति जैसी कई लोकीक आलौकिक शक्तियों से स्वतंत्र होने के लिए स्त्री अभी तक संघर्ष कर रही है। विद्रोही अपनी कविता में स्त्री के इसी ऐतिहासिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए उसकी ओर से प्रतिरोध रचते हैं।
...क्योंकि मैं उन औरतों के बारे में जानता हूँ
जो अपने एक बित्ते के आँगन मेंअपनी सात बित्ते की देह को
ता-ज़िंदगी समोए रही औरकभी भूलकर बाहर की तरफ़ झाँका भी नहीं।
और जब वह बाहर निकली तोऔरत नहीं, उसकी लाश निकली।
जो खुले में पसर गई है,माँ मेदिनी की तरह...
कविता का स्वर एकदम स्पष्ट है, विद्रोही स्त्रीवादी नहीं हुए, वे समाज के पितृसत्तात्मक रवीए से कुंठित हैं। ऐसा समाज जिसमें स्त्री को एक वस्तु समझ जाए, विद्रोही इस विचार का पूरी तरह विरोध करते हैं कि स्त्रियों को अपने फैसले लेने का हक नहीं है।
अपने कविता पाठ करते हुए न केवल शब्द स्फुट होते हैं, बल्कि उस स्फुट में एक ऊष्म है,जिसमें विद्रोही ने बारूद भरा है, एक दिन पितृसत्तात्मक का भट्टा बैठ जाएगा।
इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) में अपने लेख ‘विद्रोही: एक बाग़ी वाचक’ में विद्रोही की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए धर्मराज कुमार ने लिखा है:
Those who have heard him reciting poetry know that his poetry recitation always appeared to be the true embodiment of ‘the spontaneous overflow of powerful feelings.’ Rather, it is not only ‘recollected in tranquility’, it is ‘recollected in turbulence’ as well. In the gap between every word lies love, affection and memory. His literariness is expressed through language bereft of pedantic diction. Reading his poetry is like celebrating the people’s revolt against all forms of religious bigotry, injustice and violence.
( Vidrohi: A rebel Reciter, Economic & Political weekly, vol- 10, March, 2017 )
अरुण देव कहते हैं, विद्रोही जनता के सत्य को सरल बनाने और उसे प्रमाणित करने के लिए वैश्विक प्रसंगों को कविता में प्रस्तुत करते हैं। विद्रोही की यह वैश्विक दृष्टि विश्व राजनीति और उसकी भौगोलिक संस्कृति से निर्मित होती है। उनकी लंबी कविताओं में अब्राहम लिंकन से लेकर चे ग्वेरा, फिदेल कास्त्रो, बिल क्लिंटन, हेमिंग्वे, स्पार्टकस तक आते हैं। सवाना के जंगलों से लेकर बंगाल के मैदानों तक की वैश्विक भौगोलिकता भी उनकी कविताओं में रचाव ग्रहण करती है। प्राचीन सभ्यताओं- सिंधु, मोहनजोदड़ो, बेबीलोनिया, मेसोपोटामिया के उल्लेख से वे अपनी कविताओं को ऐतिहासिक और भौगोलिक विस्तार देते हैं। यह सभी लक्षण विद्रोही की सजग विश्वदृष्टि का परिचय देते हैं और उनकी कविताओं की सांद्रता में वृद्धि करते हैं।
...मैं वहाँ से बोल रहा हूँ
जहाँ मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी है
जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं
इसी तरह एक औरत की जली हुई लाश
आपको बेबीलोनिया में भी मिल जाएगी...
हाशिए की अस्मिताओं की ओर से विद्रोही की कविताओं में जो प्रतिरोध है, निश्चय ही वह उत्तर-आधुनिक प्रभाव हैं। वे अपनी कविताओं में प्राचीन दांतकथाओं, और भारतीय समाज की उन कुरुतियों को भी आड़े हाथ लेते हैं जिनमें मनुष्यता की हत्या हुई है। अपनी कविता के माध्यम से जब जब वे अपने और समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच को खोज लेते हैं, वे उसे कविताओं के प्रहार से वहीं दंडित कर देते हैं।
विद्रोही की कविताओं में स्त्री संवेदना सिर्फ पितृसत्ता या दमनकारी सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध नहीं गढ़ती, बल्कि भीतर तक चोट करके बेचैन कर देती है। यहाँ स्त्री किसी मांसल, सजावटी सौंदर्य-छवि के रूप में नहीं आती, वह बहन, बेटी, दादी-नानी जैसी घरेलू पहचान में भी है और मेहनतकश वर्ग की साथी के रूप में भी। उसके अनुभव उसके वर्गीय यथार्थ से जुड़े हैं, और विद्रोही का पुरुष-पात्र भी उसी संघर्ष में उसके साथ खड़ा दिखाई देता है।
डॉक्यूमेंटरी में वे एक जगह रवींद्रनाथ ठाकुर की एक पंक्ति जो आधुनिकता पर है, कहते हैं,
True mordenism is freedom of heart and independece of mind, not slavery of taste.
लेकिन वे कहते हैं मैं इसे अपने ढंग से फिर बनाया है, जो कि
True mordenism is frealessness of conscious.
शासन, सत्ता और धर्म पर अपनी छंदमुक्त कविता के माध्यम से जो कटाक्ष वे करते हैं वह बहुत बेबाक है। मनुष्य का शोषण करने वाली किसी भी तरह की सत्ता उन्हें स्वीकार्य नहीं है। धर्म और ईश्वर की सत्ता वर्चस्ववादी है क्योंकि उससे जुड़ा हुआ आनुषंगिक दर्शन शोषण को सही ठहरा देता है। वे धर्म के राजनीतिक रूप को पहचानते हैं। धर्म का राजनीतिक रूप पूँजीवादी शोषण की राह आसान कर देता है।
विद्रोही की भाषा में पूर्वी अवधी और भोजपुरी का मिश्रण है। ग़ज़ल और शेर के लिए में उर्दू-अरबी भाषा की ओर भी उनका झुकाव रहा। ग़ज़लों और नज़्मों में शहरे-मदीना, नूरे-ख़ुदा, सज़्दा-ए-नमाज़ी, दीदे-ग़म जैसी सामान्य इज़ाफ़त और नस्ल, वस्ल, महज़बीं, शमशीर जैसे शब्द दिखाई देते हैं। उनके अवधी गीतों में अवधी का निखरा हुआ रंग है तो खड़ी बोली की कविताओं में भी अवधी के ‘आंजन’ जैसे बेहद पुराने शब्द मिलते हैं। अवधी के गीत अवध के किसान जीवन की श्रमसिक्त भाषा की मिट्टी से रचे गए हैं।
हिंदी के विशिष्ट स्वाद वाले बड़े कवि केदारनाथ सिंह ने विभाजन पर ‘सन् 47 को याद करते हुए’ लिखी थी। उसी विषय पर विद्रोही ने हिंदी को एक अनमोल कविता ‘नूर मियाँ’ दी, और सच कहें तो असर, गहराई और मनुष्यता के स्तर पर विद्रोही का नूर मियाँ कहीं आगे निकल जाता है।
दोनों कविताओं में नूर मियाँ सुरमा बेचने वाले हैं, लेकिन विद्रोही का नूर मियाँ कहीं अधिक जीवंत, कहीं अधिक मानवीय और कहीं अधिक इतिहास-बोध से भरा पात्र बनकर उभरता है।
विद्रोही की कविता का कथानक सीधा-सा है। कवि की दादी को नूर मियाँ का सुरमा बेहद प्रिय था। एक सींक सुरमा लगाते ही उनकी आँखें गंगा-जमुना की तरह छलछला उठती थीं। फिर विभाजन आया, नूर मियाँ पाकिस्तान चले गए और कुछ ही समय बाद कवि की दादी भी संसार छोड़ गईं।
लेकिन पूरी कविता में जिस गंगा-जमुनी तहज़ीब का कोमल, मानवीय और उष्मा से भरा चित्र उभरता है, वह हिंदी कविता में दुर्लभ है। बिना किसी अतिशयोक्ति के कहा जा सकता है कि ‘नूर मियाँ’ हिंदी में विभाजन पर लिखी गई सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है।
जिन्होंने विद्रोही की तेज, खनकदार आवाज़ में यह कविता सुनी है, वे सच में भाग्यशाली हैं। कविता का अंतिम अंश तो इतना मार्मिक है कि पाठक-श्रोता दोनों को भीतर तक भिगो देता है। जिस नूर मियाँ के सुरमे से कवि की दादी ‘बिटौनी बनी फिरती थीं’ और बुढ़ापे में भी आसानी से सुई में धागा डाल लेती थीं, वही नूर मियाँ विभाजन की मार झेलकर पाकिस्तान चले गए।
और इस दर्दनाक विदाई को कवि एक साधारण सी पंक्ति से इतना गहरा बना देता है कि इतिहास अचानक बहुत निजी, बहुत मानवीय हो जाता है।