विजयदान देथा: राजस्थान के लोक साहित्यकार, साहित्यिक एवं जीवन परिचय

राजस्थान के जोधपुर शहर से लगभाग 100 कि। मी दूर बोरुंदा गाँव अपनी पुरानी पहचान को छोड़ कर शहर के नए ढंग के कपड़े पहनते हुए आगे बढ़ रहा था, 15 हजार की आबादी वाला ये गाँव, किस लिए बात हो रही है इसकी? दरअसल ये गाँव भारतीय साहित्य के इतिहास में अमर हो गए विजेदान देथा का गाँव है। प्यार का नाम "बिज्जी" 

विजेदान देथा का जन्म राजस्थान में, सं 1982 में हुआ, जब वे 4 साल हुए तब 1986 में उनके पिता और उनके दो चाचा की एक मामूली से झगड़े में मृत्यु हो गई। बिज्जी बताते हैं कि जब उन्होंने अपने पिता की लाश देखी तो, वे अपने जीवन की सभी अच्छी स्मृतियों से हाथ धो बैठे, इसके बाद बिज्जी के बड़ी भाईसाहब उन्हें शिक्षा के लिए दूसरे शहर लेकर गए।

बिज्जी ने शिक्षा ग्रहण की लेकिन उनके लेखक होने का श्रेय उनकी यह शिक्षा नहीं है बल्कि वे बताते हैं, कि उनकी पिता की कविता करने की कला ही उनमें आई है, जिससे वे इतने बड़े लेखक बन सके।

एक 4 वर्षीय बालक के लिए अपने पिता की मृत्यु देखना भयावह है, 1930 का वह समय उस समय से आज लगभग 95 साल बीत गई हैं, आज उनके घर की वहाँ कोई पहचान नहीं बची है, शायद अब वहाँ कोई और परिवार का वास हो, उनके घर की वे सीढ़ियाँ, आँगन, वे दीवारें अब किसी और परिवार का घर होंगी। बोरुंदा  आज कुछ और है, जो बिज्जी के होने पर नहीं था, आज बिज्जी की मृत्यु को भी 12 वर्ष बीत गए। जीवित रहते जब भी ठीक लगता वे अतीत के उस बोरुंदा में वहाँ जाया करते।

उनका साहित्य संसार

बिज्जी ने किसी ब्रह्मराक्षस, बुद्धिजीवी या महानगरों में बसे महामानवों के लिए कुछ नहीं रचा, हाँ वे चाहे तो इसे पढ़ सकते हैं लेकिन उनका साहित्य उनकी अपनी दृष्टि से जिया हुआ साहित्य है, जो उन्होंने अपने दोनों आँखों से देखा, अपने गाँव में, राजस्थान में। बिज्जी के साहित्य की दुनिया बहुत अलग रही है, उनके साहित्य में कल्पना या पौराणिक कथाओं का महिमामंडन नहीं, न ही उनकी खंडित स्मृति की उपज है, बल्कि वह उनके प्रत्यक्ष फैला और बिखर हुआ राजस्थान का जीवन है।

अपनी लिखी कथाओं में वे कई बार चक्कर लगाने भी निकाल पड़ते थे, किसी नए किरदार की उम्मीद में, शहरी बुद्धिजीवी के लिए शायद यह थोड़ा आश्चर्यजनक हो।

बिज्जी की एक कहाँ अनमोल खजाना में एक गड़रिया राजा से कहता है "अलगोजे को चमड़े के खोल में खोंसते हुए बोल, 'फिर आप काहे के राजा हैं! एक रात भी बिना इत्तला किये आप बाहर नहीं रह सकते ! मैं एक नाकुछ गड़रिया हूँ, पर हूँ अपनी मरजी का मालिक। समूची कुदरत ही मेरा घर है।
दूसरे गड़रिये ने सोचा, यह ढोर आज सारी बिरादरी को ले डूबेगा। वो उसके करीब जाकर धीमे-से बोला, 'गधा कहीं का! कब से बकबक किये जा रहा है! ज़रा तमीज रख। क्या बड़े आदमियों से इस तरह बात की जाती है?'
पर वो पूरा गधा निकला। उसके भेजे में कुछ नहीं घुसा। बोला, 'आदमी को छोटा-बड़ा क्या! अपनी-अपनी जगह सब बड़े हैं। मैं तो वही बात करूँगा जो मैं जनता हूँ..."

हमारे बिज्जी को रवींद्र से बहुत लगाव था, और शरत को पढ़ कर तो वे रोते थे, एक सक्षात्कार में वे बताते वे जब शरत को पढ़ते थे तब एक बर्तन में पानी लेकर बैठते, जब रोए तभी आँखें धोई, साफ की और फिर पढ़ने लगे। वे बताते हैं 19जस्थान के जोधपुर शहर से लगभाग 100 कि। मी दूर बोरुंदा गाँव अपनी पुरानी पहचान को छोड़ कर शहर के नए ढंग के कपड़े पहनते हुए आगे बढ़ रहा था, 15 हजार की आबादी वाला ये गाँव, किस लिए बात हो रही है इसकी? दरअसल ये गाँव भारतीय साहित्य के इतिहास में अमर हो गए विजेदान देथा का गाँव है। प्यार का नाम "बिज्जी" ।

विजेदान देथा का जन्म राजस्थान में, सं 1982 में हुआ, जब वे 4 साल हुए तब 1986 में उनके पिता और उनके दो चाचा की एक मामूली से झगड़े में मृत्यु हो गई। बिज्जी बताते हैं कि जब उन्होंने अपने पिता की लाश देखी तो, वे अपने जीवन की सभी अच्छी स्मृतियों से हाथ धो बैठे, इसके बाद बिज्जी के बड़ी भाईसाहब उन्हें शिक्षा के लिए दूसरे शहर लेकर गए।

बिज्जी ने शिक्षा ग्रहण की लेकिन उनके लेखक होने का श्रेय उनकी यह शिक्षा नहीं है बल्कि वे बताते हैं, कि उनकी पिता की कविता करने की कला ही उनमें आई है, जिससे वे इतने बड़े लेखक बन सके।

एक 4 वर्षीय बालक के लिए अपने पिता की मृत्यु देखना भयावह है, 1930 का वह समय उस समय से आज लगभग 95 साल बीत गई हैं, आज उनके घर की वहाँ कोई पहचान नहीं बची है, शायद अब वहाँ कोई और परिवार का वास हो, उनके घर की वे सीढ़ियाँ, आँगन, वे दीवारें अब किसी और परिवार का घर होंगी। बोरुंदा आज कुछ और है, जो बिज्जी के होने पर नहीं था, आज बिज्जी की मृत्यु को भी 12 वर्ष बीत गए। जीवित रहते जब भी ठीक लगता वे अतीत के उस बोरुंदा में वहाँ जाया करते।

लोकभाषा का चयन

बिज्जी ने किसी ब्रह्मराक्षस, बुद्धिजीवी या महानगरों में बसे महामानवों के लिए कुछ नहीं रचा, हाँ वे चाहे तो इसे पढ़ सकते हैं लेकिन उनका साहित्य उनकी अपनी दृष्टि से जिया हुआ साहित्य है, जो उन्होंने अपने दोनों आँखों से देखा, अपने गाँव में, राजस्थान में। बिज्जी के साहित्य की दुनिया बहुत अलग रही है, उनके साहित्य में कल्पना या पौराणिक कथाओं का महिमामंडन नहीं, न ही उनकी खंडित स्मृति की उपज है, बल्कि वह उनके प्रत्यक्ष फैला और बिखर हुआ राजस्थान का जीवन है।

अपनी लिखी कथाओं में वे कई बार चक्कर लगाने भी निकाल पड़ते थे, किसी नए किरदार की उम्मीद में, शहरी बुद्धिजीवी के लिए शायद यह थोड़ा आश्चर्यजनक हो।

बिज्जी की एक कहाँ अनमोल खजाना में एक गड़रिया राजा से कहता है "अलगोजे को चमड़े के खोल में खोंसते हुए बोल, 'फिर आप काहे के राजा हैं! एक रात भी बिना इत्तला किये आप बाहर नहीं रह सकते ! मैं एक नाकुछ गड़रिया हूँ, पर हूँ अपनी मरजी का मालिक। समूची कुदरत ही मेरा घर है।

दूसरे गड़रिये ने सोचा, यह ढोर आज सारी बिरादरी को ले डूबेगा। वो उसके करीब जाकर धीमे-से बोला, 'गधा कहीं का! कब से बकबक किये जा रहा है! ज़रा तमीज रख। क्या बड़े आदमियों से इस तरह बात की जाती है?'

पर वो पूरा गधा निकला। उसके भेजे में कुछ नहीं घुसा। बोला, 'आदमी को छोटा-बड़ा क्या! अपनी-अपनी जगह सब बड़े हैं। मैं तो वही बात करूँगा जो मैं जनता हूँ..."

हमारे बिज्जी को रवींद्र से बहुत लगाव था, और शरत को पढ़ कर तो वे रोते थे, एक सक्षात्कार में वे बताते वे जब शरत को पढ़ते थे तब एक बर्तन में पानी लेकर बैठते, जब रोए तभी आँखें धोई, साफ की और फिर पढ़ने लगे। वे बताते हैं 1958 के आसपास जब एमए की, लेकिन वे बताते हैं कि जब तक वे उस पढ़ाई को भूले नहीं तब तक कुछ नया अर्जित नहीं कर सके।

उन्होंने पाश्चात्य साहित्य में विक्टर हुगो के Les Misérables, Laughing man को सबसे पहली बार पढ़ा।

वे बताते हैं "मेरे पहले गुरु हैं शरत, दूसरे आंतोन चेखव और तीसरे गुरु हैं रवींद्र नाथ ठाकुर" 

कोई मुझसे पूछे कि मैंने शरत बाबू से क्या सीखा? तो मैं कहूँगा, शरत बाबू से मैंने उनकी संवाद शैली सीखी, चेखव से मैंने सीखा की ज़िंदगी की छोटी छोटी चीजें, जिन्हें व्यक्ति नगण्य समझ लेता है, चंद सूरज और आसमान को नहीं अपने पैर के पास चल रही चींटी को देखों, उनपर कैसी सुंदर कहानी लिखी जा सकती है।

मेरे खोजे खोजेगा तो तीन लोक को सोजा
मेरे गाए गाएगा तो खत्ता गणेरा कहेगा
-अज्ञात-

बिज्जी कहते हैं वे किसी की प्रकाशित किताबों से अनुकरण नहीं करते, बल्कि वे ये जानने में ज्यादा उत्सुक रहते हैं की वे उस मंजिल तक कैसे पहुँचे। रवींद्र नाथ ठाकुर से, कैसे वे अनलॉजी द्वारा कहानी/कथानक को लिखते बताते हैं वो मैंने रवींद्र नाथ ठाकुर से सीखा।

विजयदान का फैसला कि, वह हिन्दी नहीं केवल राजस्थानी भाषा में साहित्य सृजन करेंगे। ये घटना न केवल हिन्दी बल्कि बल्कि भारतीय साहित्य के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है, इस फैसले को एक लेखक का अपनी मिट्टी के प्रति स्नेह को तो दर्शाता ही है, लेकिन दूसरी ओर ये एक जोखिम भरा निर्णय था, जिसमें चूक भारतीय एवं राजस्थानी साहित्य को एक लेखक क्षति पहुँच सकती थी, इस फैसले में गलती की गुंजाइश स्वीकार्य नहीं थी।

जिस समय दुनिया आधुनिकता की और रुख कर रही थी, तब बिज्जी ने अपने पाँव उलटे चले और चल दिए अपनी लोकभाषा का हाथ थामे, पितरसत्ता,सामंती, पिछड़ेपन, और रूढ़ियों से जकड़े रेत के ढेलों की ओर गए, वहाँ की मार्मिक विडंबनाओं और लोककथाओं को बिज्जी ने अपनी सृजनात्मकता, और कल्पनाशीलता के माध्यम से एक नया आयाम दिया।

वे वास्तविक लोक जीवन में जाकर लोगों से उनकी कहानियाँ जानते और, अपनी सृजनशीलता से उसे गढ़ते। आगर उनकी कहानियों को राजस्थानिक लोक साहित्य का दर्जा दिया जाए तो कोई अति नहीं होगी। अपनी इस शैली से वे न केवल राजस्थान बल्कि भारतीय साहित्य को दे रहे थे एक अपूर्व परंपरा।

जो आधुनीक कहनीयाँ संप्रेक्षित नहीं कर सकती, जो कथानक आम लोगों के जबान पर सदियों से बैठा सो रहा है, वे उसे लेकर अपनी कहानियाँ रचते हैं। वे मानते हैं लोककथा में केवल शब्द नहीं होते, बल्कि वे उनकी आँखों के अंशु, उनकी चमक, होंठ की मुस्कान, माथे की सिकुड़न और व्यक्ति की हाव-भाव से निकलती है अगर लोककथा को उकेरा जाए तो इन मुद्राओं का विशेष ख्याल रखना ही होगा इन हाव-भाव के बिना लोककथा कुछ नहीं।

बिज्जी ने ऐसी ही न जाने कितनी लोककथाओं को उकेरा, लेकिन, आप ये न समझें की ये कोई आसान काम है, हर लोक कथा एक मणि ही हो जरूरी नहीं, कई वे बार ढेला, भी हो सकता है। बिज्जी को भी इसका कई बार सामना करना पड़ा। लेकिन आपकी लगातार खोज ही आपको मणि दिलाएगी। बिज्जी के पाँव कभी बैठे नहीं वे हमेशा एक मणि की खोज में निकल पड़ते।

हम जानते हैं, राजस्थानी साहित्य में पद्य की महत्ता तो थी ही, और दूसरी ओर 20 वीं सदी के साहित्य में अपनी लोक भाषा की साइकल के साथ यथार्थ के चौड़े और लंबे रेगिस्तान में जूझ रहे हमारे बिज्जी जी। 

वे बताते हैं कि जिस समय उन्होंने अपनी मात्र भाषा को साहित्य की भाषा चुनने का फैसला लिया उस समय, कोई प्रेमचंद, महादेवी, देवकीनंदन खत्री नहीं थे जो इस मात्र भाषा का जोखिम को उठाने को तैयार थे।

वे उदाहरण देते हैं कि जिन्होंने अपने लोकभाषा में साहित्य लिखने के इस जोखिम को उठाया, पहला Chinghiz Aitmatov जो किरगीज़ भाषा के लेखक थे,उस समय केवल 2 लाख की आबादी होने के बावजूद आज वे दुनिया भर में जाने जाने जाते हैं, दूसरे लेखक वे, Rasul Gamzatov, भी आज दुनिया की हर भाषा में अनूदित होकर पढे जाने वाले लेखक हैं। 

वे बताते हैं कि,मैं टोलसटॉय को उजाले का और दोस्तवस्की को अंधेरा और रहस्य का लेखक मानते हैं, बिज्जी दोस्तवस्की को टोलसटॉय से बड़ा लेखक मानते हैं। गोर्की भी किसी से कम नहीं है! काफ्का की सारी खूबियाँ, और श्रेष्टता हिन्दी में अनुवाद होने से खत्म हो गई। आगे जोड़ते हैं की हिंदुस्तान का लेखक यहाँ की प्रकृति को, यहाँ के सपनों को अंग्रेज़ी के माध्यम से नहीं उजागर किया जा सकता है, आगे जोड़ते हैं कि हो सकता है मेरा ये केवल पूर्वग्रह हो! 

मूलतः वे कहते हैं कि लेखक को अपनी प्रांतीय भाषा को चुनना चाहिए, आगे चाहे उसका अनुवाद हो, वह प्रकाशन की अपनी तिकड़म है जिससे विश्व भर की ख्याति मिले, जैसे वे खुद दुनिया के अलग अलग लेखकों की किताबों के अनुवाद को पढ़ जाए।

वे आगे जोड़ते हैं कि लेखक की मशक्कत उसकी खुदकी ही हो तो बेहतर है। अगर रवींद्र कुछ बने तो वो इसलिए कि उन्होंने अपनी भाषा का जोखिम उठाया, वे इसलिए रवींद्र नहीं हुए की उन्हें बांग्ला आती है! 

बिज्जी मानते हैं राजस्थानी लिखना मेरे लिए एक नैसर्गिक क्रिया है, जैसे मेरा सांस लेना, जैसे तितली की उड़ान, मेरा चलना जैसे स्वाभाविक है वैसे ही मेरा द्वारा और मेरा सृजन या अध्ययन एकदम नैसर्गिक रहा है। मेरा लिखना-पढ़ना अनिवार्य है इससे मुक्त होना मेरे लिए संभव नहीं।

कॉलेज की शिक्षा के बाद ज्वाला साप्ताहिक जो उनके मित्र निकाला करते उसमें 3 कोलम लिखने लगे। उनके लिए लिखना केवल लेखन नहीं था, वे लिखने से लेकर छपने तक की पूरी प्रक्रीया को ही एक मानते हो समझते।

हिन्दी अनुवाद

बिज्जी की कहानियों का हिन्दी अनुवाद कैलाश कबीर ने किया, लेकिन अब वे केवल हिन्दी ही नहीं बल्कि उनका साहित्य नगर और प्रांत की दीवार लांघ कर अन्य भाषाओं तक भी फैला।

फिल्मी दुनिया का करियर

फिल्मी जगत में सबसे पहली मुलाक़ात उनकी मणि कौल से हुई, मणि चाहते थे की त्रिधारा पर वे एक फ़िल्म बनाएं, लेकिन उस पर बिज्जी ने कहा की वे एक बार 'दुविधा' पढ़ें फिर फैसला करें। इसके बाड़ जब उन्होंने दुविधा पढ़ी तो मणि कौल राज़ी हुए और उसपर फ़िल्म बनी। फलस्वरूप दुविधा फ़िल्म को खूब ख्याति प्राप्त हुई। अब प्रकाश झा भी इसके बाद बिज्जी से मिले और फ़िल्म बनाने की बात की जिस पर दोनों की सहमति से फ़िल्म परिणति बनी। इसके बाद बिज्जी की कहानी 'फितरती चोर' को पढ़ कर तत्कालीन लेखक, निर्देशक एवं रंगकर्मी हबीब तनवीर ने अपने लोकप्रिय नाटक 'चरणदास चोर' के मंचन को संभव किया।