दिल्ली में कृत्रिम बारिश (क्लाउड सीडिंग) की योजना पर भारतीय जनता पार्टी (BJP) का रुख मुख्य रूप से वायु प्रदूषण से लड़ने के एक उपाय के रूप में रहा है, विशेषकर उन महीनों में जब प्रदूषण का स्तर सबसे अधिक होता है। हालांकि, मौजूदा योजना के मॉनसून के दौरान (जुलाई में प्रस्तावित था, अब अगस्त-सितंबर में) होने पर कुछ विपक्षी दलों (विशेषकर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस) ने सवाल उठाए हैं, जिसके जवाब में बीजेपी ने अपनी स्थिति स्पष्ट की है।
BJP के अनुसार बरसात के मौसम में (या उसके आसपास) कृत्रिम बारिश का उद्देश्य:
वायु प्रदूषण नियंत्रण: बीजेपी सरकार (दिल्ली में, क्योंकि वर्तमान में यह बीजेपी शासित है) का प्राथमिक उद्देश्य दिल्ली की गंभीर वायु प्रदूषण समस्या से निपटना है। कृत्रिम बारिश से वातावरण में मौजूद धूल और प्रदूषक कण (जैसे PM2.5 और PM10) नीचे बैठ जाते हैं, जिससे हवा की गुणवत्ता में अस्थायी सुधार आता है। बीजेपी का कहना है कि यह दिल्लीवासियों को स्वच्छ हवा उपलब्ध कराने के उनके संकल्प का हिस्सा है।
फैक्ट-चेक: विज्ञान भी यह मानता है कि बारिश, चाहे प्राकृतिक हो या कृत्रिम, वायु में मौजूद महीन कणों को नीचे गिराने में मदद करती है, जिससे हवा थोड़ी साफ होती है।
सर्दियों के गंभीर प्रदूषण से निपटने की तैयारी: हालाँकि ट्रायल की तारीख अब अगस्त-सितंबर में है, लेकिन बीजेपी का तर्क है कि यह प्रयोग सर्दियों के चरम प्रदूषण के दौरान कृत्रिम बारिश की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए महत्वपूर्ण है। एक बार तकनीक सफल साबित होने पर, इसे उन महीनों में उपयोग किया जा सकता है जब दिल्ली में प्रदूषण सबसे भयावह स्तर पर होता है और प्राकृतिक बारिश की संभावना कम होती है।
विपक्षी दलों की आपत्ति: आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने इस पर सवाल उठाए थे कि मॉनसून के बीच जब प्राकृतिक बारिश होने की संभावना है, तब कृत्रिम बारिश कराने का क्या औचित्य है और क्या यह "जनता के पैसे की बर्बादी" या "झूठी वाहवाही" है। AAP ने यह भी तर्क दिया कि कृत्रिम वर्षा की उपयोगिता अक्टूबर से जनवरी के बीच के प्रदूषण से लड़ने में है, जब बादल नहीं होते और वायुमंडल शुष्क होता है।
BJP का जवाब: बीजेपी ने विपक्षी दलों के आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि वे (बीजेपी सरकार) ही हैं जिन्होंने MoU पर हस्ताक्षर किए, IIT कानपुर को भुगतान किया और आवश्यक स्वीकृतियों के लिए आवेदन किया, क्योंकि वे "वास्तविक कार्रवाई" करना चाहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि पिछली सरकारों ने केवल कृत्रिम बारिश की बात की, लेकिन कुछ किया नहीं।
संक्षेप में, बीजेपी के अनुसार, बरसात के मौसम के आसपास (अगस्त-सितंबर) कृत्रिम बारिश का मुख्य उद्देश्य दिल्ली के वायु प्रदूषण को कम करने के लिए एक वैज्ञानिक और तकनीकी समाधान का परीक्षण करना है, जिससे भविष्य में सर्दियों के गंभीर प्रदूषण से निपटने में मदद मिल सके।
कृत्रिम बारिश, जिसे क्लाउड सीडिंग भी कहा जाता है, एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें बादलों में कुछ विशेष रसायनों को छोड़ा जाता है। इन रसायनों के कारण बादलों में मौजूद पानी की छोटी-छोटी बूँदें आपस में मिलकर बड़ी हो जाती हैं और वर्षा के रूप में ज़मीन पर गिरती हैं। यह प्राकृतिक वर्षा की प्रक्रिया को तेज करने का एक मानव-निर्मित प्रयास है
उपयुक्त बादलों की पहचान: सबसे पहले, मौसम वैज्ञानिकों द्वारा उन बादलों की पहचान की जाती है जिनमें वर्षा कराने की क्षमता होती है, यानी उनमें पर्याप्त नमी और संघनन के लिए छोटे जल कण हों। आमतौर पर निंबोस्ट्रेटस (Ns) जैसे बादलों का चयन किया जाता है जिनमें कम से कम 50% नमी हो।
रसायनों का छिड़काव (सीडिंग): एक विशेष रूप से तैयार किए गए विमान, रॉकेट, या ड्रोन के माध्यम से बादलों में कुछ रासायनिक कण छोड़े जाते हैं।
संघनन नाभिक का कार्य: ये रसायन (जैसे सिल्वर आयोडाइड (AgI), ड्राई आइस (ठोस CO₂), पोटेशियम आयोडाइड या सोडियम क्लोराइड) हवा में मौजूद जलवाष्प के लिए संघनन नाभिक (Condensation Nuclei) का काम करते हैं। इसका मतलब है कि पानी की बूँदें इन कणों के चारों ओर जमा होने लगती हैं।
बूँदों का बनना और वर्षा: जब इन कणों के चारों ओर पर्याप्त जलवाष्प संघनित हो जाती है, तो पानी की बूँदें या बर्फ के क्रिस्टल बड़े और भारी हो जाते हैं। एक निश्चित भार तक पहुँचने के बाद, वे गुरुत्वाकर्षण के कारण वर्षा के रूप में ज़मीन पर गिरने लगते हैं।
संभावित वर्षा-युक्त बादलों की उपस्थिति।
बादलों में पर्याप्त आर्द्रता (नमी)।
अनुकूल तापमान और हवा की दिशा।
दिल्ली में कृत्रिम बारिश का यह प्रयोग मुख्य रूप से वायु प्रदूषण से निपटने के लिए किया जा रहा है, खासकर सर्दियों में जब प्रदूषण का स्तर 'गंभीर' श्रेणी में पहुँच जाता है।
वर्तमान स्थिति:
स्थगित हुई तारीख: पहले यह ट्रायल 4 से 11 जुलाई 2025 के बीच होना था। लेकिन, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) और IIT कानपुर के विशेषज्ञों की सलाह के बाद इसे 30 अगस्त से 10 सितंबर 2025 के बीच कराने का फैसला लिया गया है।
स्थगन का कारण: जुलाई में मॉनसून सक्रिय होने के कारण बादलों की प्रकृति बदल जाती है, जिससे क्लाउड सीडिंग उतनी प्रभावी नहीं हो पाती और वैज्ञानिक डेटा इकट्ठा करने में मुश्किल होती। अगस्त के अंत से सितंबर की शुरुआत का समय इस तकनीक के लिए अधिक उपयुक्त माना गया है, जब मॉनसून लौटने लगता है और बादलों में अपेक्षित नमी मौजूद होती है।
प्रौद्योगिकी और सहयोगी:
यह ट्रायल IIT कानपुर के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग विभाग के नेतृत्व में किया जाएगा।
इसके लिए एक विशेष रूप से तैयार किए गए सेसना विमान (VT-IIT) का उपयोग किया जाएगा।
भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (IITM) पुणे और IMD भी इस परियोजना में तकनीकी सहायता प्रदान कर रहे हैं।
इस ट्रायल के लिए नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (DGCA) से भी अंतिम मंजूरी मिल चुकी है।
इस पायलट प्रोजेक्ट का कुल बजट लगभग 3.21 करोड़ रुपये है, जिसका पूरा खर्च दिल्ली सरकार वहन करेगी।
इसमें कुल पाँच ट्रायल किए जाएंगे।
क्लाउड सीडिंग के लिए दिल्ली के कुछ खास बाहरी इलाकों को चिन्हित किया गया है, जैसे कुंडली बॉर्डर, अलीपुर, बवाना, रोहिणी, बुराड़ी, पावी सदकपुर और ईस्टर्न पेरिफेरल एक्सप्रेसवे के कुछ हिस्से।
उद्देश्य: यदि यह ट्रायल सफल होता है, तो कृत्रिम बारिश दिल्ली जैसे महानगरों में वायु प्रदूषण को कम करने के लिए एक संभावित टूल बन सकती है, खासकर उन दिनों में जब प्रदूषण का स्तर बहुत खतरनाक हो जाता है।
कृत्रिम बारिश का प्रयोग भारत में पहली बार नहीं हो रहा है, न ही यह दुनिया के लिए कोई नई तकनीक है।
भारत में इतिहास:
भारत में क्लाउड सीडिंग का पहला प्रयोग 1951 में पश्चिमी घाट में किया गया था।
गंभीर सूखे की स्थिति से निपटने के लिए तमिलनाडु (1983, 1984-87, 1993-94) में कई बार इसका उपयोग किया गया।
कर्नाटक (2003, 2004, 2019) और महाराष्ट्र (2004) में भी सूखे से निपटने के लिए क्लाउड सीडिंग ऑपरेशन चलाए गए हैं।
पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी (IITM) ने नागपुर, सोलापुर, जोधपुर और वाराणसी के आसपास भी कई प्रयोग किए हैं, जिनकी सफलता दर 60-70% तक बताई जाती है।
विश्व भर में उपयोग:
दुनिया भर के 50 से अधिक देशों ने कृत्रिम बारिश तकनीक को आज़माया है, जिनमें चीन, अमेरिका, रूस, ऑस्ट्रेलिया, जापान और यूएई शामिल हैं।
चीन इस काम में अग्रणी है; उसने 2008 के बीजिंग ओलंपिक के दौरान बारिश को नियंत्रित करने और 2025 तक देश के बड़े हिस्से को कृत्रिम वर्षा के अंतर्गत लाने की योजना बनाई है।
यूएई ने भी सूखे से निपटने के लिए इसका उपयोग किया है।
कृत्रिम बारिश एक आशाजनक तकनीक है, लेकिन इसके कुछ पर्यावरणीय और व्यवहारिक पहलू भी हैं:
प्रदूषण कम करने में भूमिका: कृत्रिम बारिश हवा में मौजूद प्रदूषण कणों (जैसे PM2.5, PM10, नाइट्रोजन ऑक्साइड) को नीचे धो सकती है, जिससे वायु गुणवत्ता में अस्थायी सुधार होता है। यह प्रदूषकों को फैलने से भी रोक सकती है। हालांकि, विशेषज्ञ मानते हैं कि यह प्रदूषण का दीर्घकालिक समाधान नहीं है, जब तक कि प्रदूषण के मूल कारणों को दूर न किया जाए। यह एक अल्पकालिक राहत प्रदान करती है।
लागत: क्लाउड सीडिंग एक खर्चीली प्रक्रिया है। लगभग 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बारिश कराने के लिए एक करोड़ रुपये तक का खर्च आ सकता है।
पर्यावरणीय चिंताएँ:
रसायनों का प्रभाव: सिल्वर आयोडाइड जैसे रसायनों के उपयोग से पर्यावरणीय असंतुलन, मृदा में रसायनों का जमाव, पौधों की वृद्धि पर असर और खाद्य श्रृंखला में उनके प्रवेश को लेकर चिंताएँ रही हैं। हालांकि, वैज्ञानिक अध्ययनों में अभी तक इनके बड़े पैमाने पर हानिकारक प्रभावों की पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन दीर्घकालिक प्रभाव पर रिसर्च जारी है।
समुद्री अम्लीकरण/ओजोन परत: कुछ वैज्ञानिकों ने यह भी आशंका जताई है कि बड़े पैमाने पर क्लाउड सीडिंग समुद्री जल को अधिक अम्लीय कर सकती है या ओजोन परत पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है, हालांकि ये दावे अभी व्यापक रूप से स्थापित नहीं हैं।
निर्भरता: कृत्रिम बारिश के लिए भी उपयुक्त बादलों और नमी की आवश्यकता होती है। यह पूरी तरह से मौसम पर निर्भर करती है और हर परिस्थिति में संभव नहीं है।
कुल मिलाकर, दिल्ली में कृत्रिम बारिश का प्रयोग वायु प्रदूषण से लड़ने की दिशा में एक अभिनव कदम है। इसकी सफलता और दीर्घकालिक प्रभावों पर वैज्ञानिक समुदाय और सरकार की नज़र रहेगी।