उड़ता पंजाब मूवी में गाया गया ये गाना “इक कुड़ी” तो आपने सुना ही होगा, शयद आपको पता हो की यह गाना किसने गाया, लेकिन इतने खूबसूरत गाने को लिखने वाला कौन है? चलिए एक और गाने की बात करते हैं, “विदा करो” जिसके गायक को तो आप बखूबी पहचानते होंगे ही और आपने इस गाने को बेहद प्यार भी दिया है, लेकिन क्या आप इस गीत के लेखक को जानते हैं? तो शयद जवाब न ही होगा, तो चलिए आज हम आपको एक ऐसे शख्सियत से मिलवाएं जिसके नाम को लोग कम जानते हैं मतलब उसके लिखे गाने आज इतने बरसों बाद भी गाये जा रहे हैं बल्कि हिट हुए। शिव कुमार बटालवी वो नाम जिसने पंजाबी कविता की दुनिया में एक अग्नि सुलगाई, जो हर दिल को छू गया और हर जुबान पर बस गया। उनकी कविताओं में ऐसी बेचैनी, ऐसी विरह पीड़ा है, जिसे शब्दों में पिरोना किसी चमत्कार से कम नहीं। विरह का बादशाह कहे जाने वाले बटालवी ने प्रेम, तक़लीफ़ और जज्बातों का ऐसा सफर दिखाया, जो आज भी हर युग के कवि के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
उनका जीवन भले ही छोटा था, पर उनकी कला अमर है। सिर्फ पंजाबी साहित्य में नहीं, बल्कि भारतीय कविता के इतिहास में भी शिव कुमार बटालवी की गूँज आज तक सुनाई देती है। लूना जैसी कालजयी कृति से उन्होंने साबित कर दिया कि असली प्रतिभा उम्र से कभी सीमित नहीं होती। उनकी रचनाएँ आज भी लोगों के दिलों में दिलकश गीतों की तरह गूँजती हैं, जिनका जादू सदियों तक बरकरार रहेगा।
अगर आप उस शायर की गहराई में जाना चाहते हैं, जिसने दर्द और प्रेम को इस क़दर खूबसूरती से बयां किया कि हर शब्द इतिहास बन गया, तो शिव कुमार बटालवी की कविताओं में खो जाइए जहाँ शब्द भी सांस भरते हैं और हर पल एक नई अनुभूति जगाते हैं। इस लेख में हम उनके जीवन, उनकी कविता की अनमोल धरोहर और उनकी अमर महक के राज़ से रूबरू होंगे, जो आपको सिर्फ पढ़ने पर नहीं, बल्कि महसूस करने पर मजबूर कर देगा।
Born | 23 July 1936 |
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Died | 6 May 1973 (aged 36) |
Occupation | Poet-कवी |
Language | Punjabi-पंजाबी |
Period | 1960–1973 |
Genre | poetry-कविता |
Notable awards | Sahitya Akademi Award-साहित्य अकादमी पुरस्कार |
Spouse | Aruna Batalvi-अरुणा बटालवी |
"बिरह का सुल्तान" प्रसिद्ध पंजाबी कवयित्री अमृता प्रीतम ने शिव कुमार बटालवी को "बिरह का सुल्तान" कहा था। उन्होंने कहा "बिरहा बिरहा आखीए, बिरहा तू सुल्तान। जिस तन बिरहा ना उपजे, सो तन जाण मसान..." यानी कि बिरह की आग में तपे बिना कविता में वह संवेदनशीलता नहीं आ सकती। अमृता प्रीतम ने स्वीकारा कि शिव के गीतों में ऐसी बिरह की पीड़ा और प्रेम है, जो समय से परे है।
पंजाब की उर्वर धरती, हल्की बारिश की फुहारें, कहीं दूर चलते गीत की गूंज यही वह माहौल है जिसमें जन्म लिया उस शायर ने, जिसकी कलम का हर शब्द दर्द-ए-विरह को संगीत की तरह बहा ले जाता है। यह है कहानी शिव कुमार बटालवी की, एक ऐसी यात्रा जिसमें हर मोड़ पर दर्द है, प्रेम है, और रूह की गहराइयों को छू लेने वाली कविताएं हैं।
शिव का बचपन बारा पिंड लोहटियाँ में बीता। विभाजन की आग में झुलसते हुए उनका परिवार बटाला आ बसा। उनकी आंखों के सामने बार-बार बदलती सरहदें, बिछड़ते लोग और तड़पता मन सब उनके लेखन की नींव बन गए। प्रेम की तलाश उनके मन की बेचैनी बन गई, जैसे कोई सूखा दरख्त सावन की बूंदों को तरस रहा हो।
एक मेले की भीड़ में, पहली नजर का सूनापन। कहते हैं शिव ने अपनी पहली मोहब्बत ‘मेना’ को वहीं देखा दिल में हलचल, आंखों में एक अनकहा वादा, पर समय ने चाहत को पूरा होने से पहले ही छीन लिया। वह अधूरापन, वह खामोश इंतजार यही शिव के भीतर इक कुड़ी के रूप में अमर हो गया। जैसे उनकी रूह कह रही हो: इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत, गुम है इक कुड़ी न सिर्फ़ मेले की तरह रंगीन थी, बल्कि हवा की तरह छूकर भी छूट गई; वह साथ रहकर भी हमेशा बिछड़ गई।
यह इश्क था कुछ और गहरा, कुछ और दर्दनाक। अनसूया का साथ भी कभी मुकम्मल न हो सका परिवार की दीवारें, सामाजिक बंधन और समय का रवैया। बटालवी की कलम ने इस जुदाई को अमर कर दिया; "अज्ज दिन चड्या तेरे रंग वंगा" और "मैं इक शिकरा यार बनाया" जैसे गीतों में प्रेमी की छटपटाहट एक नई परिभाषा पाती है। शिव के हर शेर में यूँ महसूस होता है, जैसे दिल रो रहा है और शब्द आँसू बन बह रहे हैं।
भरी महफिल में भी शिव के गीतों में कोई अकेला बैठा दर्द सुनता, तो किसी वीरान रात की याद ताजा हो जाती। लूणा में उन्होंने समाज की नकारात्मक पात्र को अपना दर्द, इंसानियत और सहानुभूति दी, जिसमें कविता लोककथा से निकलकर हर स्त्री-हृदय की आवाज़ बन गई। लूणा ने समाज को आईना दिखाया एक नये ज़माने की दस्तक, रुढ़ियों से बगावत, और हर निंदित किरदार के लिए नई इज्जत। यह कविता साहित्य अकादमी पुरस्कार तक ले गई, पर अधिक महत्वपूर्ण था शब्दों का वह तूफान, जिसने पंजाबी कविता के आकाश को झकझोर कर रख दिया।
सैकड़ों हजारों श्रोताओं के सामने कविताएं सुनाते, कभी खुद गुनगुनाते शिव वह मंच के ताज थे, लेकिन मन के सलीब भी। प्रसिद्धि उजाले की तरह थी, लेकिन उनकी अंतरात्मा का खालीपन अंधेरी रात जैसा। हर तालियों के बाद लौटते हुए, मन का दरवाजा फिर भी सूना रह जाता। धीरे-धीरे शिव और उनकी तन्हाई के बीच शराब दीवार बनने लगी, और दर्द साजिश की तरह उनकी आत्मा में समाता चला गया।
विवाह हुआ अरुणा से, जिनसे दो बच्चे हुए। पर शिव की आत्मा में बिछड़े रिश्तों की दरारें कभी नहीं भरीं। कहते हैं उनके पास एक डायरी थी अनकहे जज़्बात, छुपी हुई कविताएं, कुछ राज़। मौत के बाद भी यह डायरी आज तक पूरी दुनिया को नहीं मिल सकी। उनकी मौत रहस्य बनकर रह गई वे केवल 36 वर्ष के थे, पर कविताओं का महासागर भारतीय साहित्य को सौंप गए।
"इक कुड़ी" में विरह की मिसरी घुली, "लूणा" में नारी सहानुभूति का नयापन, "अज्ज दिन छाड़िया" और "मैं इक शिकरा यार बनाया" में दिल की गहराई हर रचना इस तरह बनी, जैसे शब्दों के मंदिर में रिसता आंसू। पिरन दा परगा में शिव ने अपने युवावस्था के घावों को बांधने का प्रयास किया लफ्ज़ खुद ही मलहम और जख्म दोनों बन गए।
वो उम्र में सबसे कम साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले कवि, जिनकी तुलना पंजाब के कीट्स से होने लगी। उनकी कविताओं को जब नुसरत फतेह अली खान, जगजीत सिंह, हंस राज हंस ने सुर दिए तो हर शब्द में संगीत की आत्मा बस गई। उनकी रचनाएं सिर्फ गीत नहीं, दिलों की तासीर हैं जहां कोई अकेला हो, नुकसान सहा हो या बिना कहे ही कुछ खो गया हो, वहां शिव कुमार बटालवी के शब्द सुकून बन जाते हैं।
आज भी उनकी कविताएं, उनके कष्ट, उनकी हवाओं में बसी महक पंजाब और दुनिया भर में जीती-जागती है। वे खुद शायद चले गए, लेकिन उनकी रचनाओं की आवाज़ में हर पल इक कुड़ी की तरह कोई न कोई खोया प्यार मुस्कुराता है।
रूह की गहराइयों को छू जाने वाले बटालवी को जानने के लिए सिर्फ उनकी कविताएं पढ़ना काफी नहीं उनके जीवन का हर रंग, हर दर्द, हर मुस्कान भी महसूस करनी होगी। उनके शब्दों में चुपचाप घुली पीड़ा, उनके गुमनाम प्यार, और उनकी अधूरी कहानियां हर गीत में, हर साज़ में, आज भी बिछड़े दिलों की सिसकी बनकर गूंजती हैं।
"पंजाब की मिट्टी में जब भी विरह बरसता है, वहां शिव कुमार बटालवी की कविता खिलती है, दर्द छमता है और आसमान सिर्फ एक नाम दोहराता है बिरहा दा सुल्तान"∎