जला दो इसे फूक डालो ये दुनिया
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया,तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।- प्यासा (1957)
हिंदी सिनेमा में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो समय के साथ फीके नहीं पड़ते, बल्कि उनकी चमक बढ़ती ही जाती है। गुरु दत्त भी ऐसे ही एक कलाकार थे एक कमाल के डायरेक्टर, एक सेंसिटिव एक्टर और एक जटिल इंसान। उनकी फिल्में और उनकी लाइफ, दोनों ही गहरे दुख और अनकही कहानियों से भरी थीं। वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण के नाम से जन्मे इस शख्स ने इंडियन सिनेमा को एक नई पहचान दी, लेकिन अपनी पर्सनल लाइफ की उलझनों ने उन्हें ऐसा घेर लिया कि वो खुद अपनी ही कहानियों के सबसे दर्दभरे हीरो बन गए।
गुरु दत्त के जीवन पर प्रसार भारती द्वारा डॉक्यूमेंट्री:
शुरुआती संघर्ष और सपनों की दुनिया
गुरु दत्त की शुरुआती लाइफ मुश्किलों से भरी थी। बचपन से ही उनका झुकाव कला की तरफ था। उन्होंने डांस सीखा और हमेशा कुछ नया करने की बेचैनी उनमें रही। 1940 के दशक के आखिर में, वो मुंबई आ गए एक ऐसा शहर जो सपनों को पूरा भी करता था और तोड़ता भी था। यहीं पर वो यंग और टैलेंटेड देव आनंद और राज खोसला से मिले। इस तिकड़ी ने तय किया कि वो एक-दूसरे को सपोर्ट करेंगे। देव आनंद ने उन्हें अपनी नई कंपनी नवकेतन फिल्म्स में मौका दिया।
गुरु दत्त ने 1951 में बाजी से डायरेक्शन की शुरुआत की। ये एक क्राइम थ्रिलर थी जिसमें देव आनंद लीड रोल में थे। फिल्म हिट रही। बाजी में ही गुरु दत्त की फ्यूचर वाइफ, सिंगर गीता दत्त ने गाने गाए थे।
डायरेक्टर के रूप में चमक: आर्ट और सक्सेस का बैलेंस
'बाजी के बाद, गुरु दत्त ने जाल (1952) और बाज़ (1953) जैसी और फिल्में डायरेक्ट कीं। 1954 में आई आर-पार एक हल्की-फुल्की म्यूजिकल कॉमेडी थी, जिसे पब्लिक ने खूब पसंद किया और ये बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रही। इसी दौरान गुरु दत्त ने अपना खास स्टाइल बनाना शुरू किया – उनकी फिल्मों में लाइट और शैडो का कमाल का इस्तेमाल होता था, क्लोज-अप शॉट्स थे और इमोशन्स की गहराई देखने को मिलती थी। 1955 की मिस्टर एंड मिसेज ने भी उनकी डायरेक्शन स्किल्स और बिजनेस सेंस को साबित किया।
मास्टरपीस का जन्म: प्यासा और कागज के फूल
गुरु दत्त के फिल्म करियर में दो फिल्में ऐसी हैं, जो उनकी आर्टिस्टिक ऊंचाई और पर्सनल ट्रेजेडी का सिंबल बन गईं:
प्यासा (1957): ये गुरु दत्त की सबसे बड़ी फिल्मों में से एक है। इसमें उन्होंने एक स्ट्रगलिंग कवि (विजय, जिसका रोल उन्होंने खुद किया) की कहानी दिखाई, जिसे समाज की बेरुखी, पैसे की दौड़ और कड़वे रिश्तों का सामना करना पड़ता है। फिल्म गरीबी, शोषण और आर्टिस्ट के प्रति समाज की अनदेखी जैसे गहरे मुद्दों पर बात करती है। प्यासा में गुरु दत्त की एक्टिंग और उनका डायरेक्शन बेजोड़ था। इस फिल्म का एक फेमस डायलॉग उनकी अंदरूनी भावना को दिखाता है: "दुनिया मुझे पहचानती नहीं, और जो पहचानते हैं, वो समझ नहीं पाते।" (The world doesn't recognize me, and those who do, don't understand me.)
कागज के फूल (1959): ये फिल्म गुरु दत्त की लाइफ की एक दुखद भविष्यवाणी बन गई। ये एक कामयाब डायरेक्टर सुरेश सिन्हा (जिसका रोल उन्होंने खुद किया) की कहानी थी, जो फ्लॉप फिल्मों और पर्सनल रिश्तों में अकेलेपन की वजह से टूट जाता है। कागज के फूल को इंडिया की पहली सिनेमास्कोप फिल्म माना जाता है। हालांकि, ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह फ्लॉप हो गई। इस असफलता ने गुरु दत्त को अंदर से हिला दिया। उन्हें लगा कि दर्शकों ने उनके आर्टिस्टिक विजन को रिजेक्ट कर दिया है, और इसके बाद उन्होंने कभी किसी फिल्म का डायरेक्शन नहीं किया। ये विडंबना ही थी कि बाद में इसी फिल्म को इंडियन सिनेमा की क्लासिक फिल्मों में गिना गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
एक्टर और प्रोड्यूसर के तौर पर कामयाबी: चौदहवीं का चाँद और साहिब बीबी और गुलाम
कागज के फूल के फ्लॉप होने के बाद, गुरु दत्त ने डायरेक्शन से दूरी बना ली, लेकिन वो एक्टिंग और फिल्म प्रोडक्शन करते रहे।
चौदहवीं का चाँद (1960): इस फिल्म में उन्होंने एक्टिंग की और इसे प्रोड्यूस भी किया। ये एक बड़ी कमर्शियल हिट थी और इसने उनके स्टूडियो को फाइनेंशियल क्राइसिस से बचाया। ये फिल्म अपनी खूबसूरत उर्दू शायरी और गानों के लिए जानी जाती है।
साहिब बीबी और गुलाम (1962): गुरु दत्त ने इस फिल्म को प्रोड्यूस किया और इसमें एक्टिंग भी की, जबकि इसे अबरार अल्वी ने डायरेक्ट किया था। ये फिल्म पुराने सामंती सिस्टम के टूटने, रिश्तों की उलझनों और एक शराब की आदी महिला (मीना कुमारी का यादगार रोल) की ट्रेजेडी दिखाती है। इस फिल्म को बहुत तारीफ मिली और इसे हिंदी सिनेमा की एक बड़ी फिल्म माना जाता है।
पर्सनल लाइफ का अंधेरा: रिश्ते, अकेलापन और डिप्रेशन
गुरु दत्त की पर्सनल लाइफ भी उनकी फिल्मों जितनी ही कॉम्प्लेक्स और दुखभरी थी। उन्होंने फेमस सिंगर गीता दत्त से शादी की, लेकिन उनका रिश्ता तनावपूर्ण रहा। करियर की परेशानियां, गीता दत्त के सिंगिंग करियर में आई मुश्किल और गुरु दत्त के दूसरे रिलेशनशिप (खासकर वहीदा रहमान के साथ) ने उनकी शादी को कमजोर कर दिया। वो अकेलेपन, गहरे डिप्रेशन और शराब के शिकार हो गए थे। उन्होंने कई बार सुसाइड की कोशिश भी की। ऐसा लगता था कि उनकी आत्मा हमेशा कुछ ऐसी चीज ढूंढ रही थी जो शायद उन्हें कभी नहीं मिली – सच्ची समझ, एक्सेप्टेंस और शांति। उनके जीवन का एक विचार उनके इस बयान में झलकता है: "मुझे खुशी नहीं मिलती, मुझे सिर्फ दुख मिलते हैं।" (I don't find happiness, I only find sorrow.)
अचानक अंत और हमेशा के लिए अमर
10 अक्टूबर 1964 को, सिर्फ 39 साल की उम्र में, गुरु दत्त का निधन हो गया। उनकी मौत नींद की गोलियों और शराब के कॉम्बिनेशन से हुई, जिसे अक्सर सुसाइड माना जाता है, हालांकि इसे एक एक्सीडेंट भी कहा गया। उनके अचानक चले जाने से इंडियन सिनेमा ने एक महान दूरदर्शी को खो दिया, जो अपने समय से बहुत आगे थे। वो अपनी आखिरी फिल्म बहारें फिर भी आएंगी पूरी नहीं कर पाए थे।
गुरु दत्त के निधन के बाद, उनकी फिल्मों को नई पहचान और तारीफ मिली। प्यासा और कागज के फूल जैसी फिल्में, जो उनके जीते जी कमर्शियल हिट नहीं हुईं, आज इंडियन सिनेमा की क्लासिक मानी जाती हैं। उनकी आर्टिस्टिक लेगेसी (विरासत) ने कई फिल्ममेकर्स और एक्टर्स को इंस्पायर किया है। उन्हें आज भी इंडियन सिनेमा के ट्रेजिक जीनियस के तौर पर याद किया जाता है, जिनकी फिल्मों में उनकी आत्मा की उदासी और उनकी कला की अमरता झलकती है।
(निर्देशक, अभिनेता, या निर्माता के रूप में)
बाजी (Baazi - 1951): निर्देशक
जाल (Jaal - 1952): निर्देशक
बाज़ (Baaz - 1953): निर्देशक, अभिनेता
आर-पार (Aar Paar - 1954): निर्देशक, अभिनेता, निर्माता
मिस्टर एंड मिसेज '55 (Mr. & Mrs. '55 - 1955): निर्देशक, अभिनेता, निर्माता
सी.आई.डी. (C.I.D. - 1956): निर्माता
प्यासा (Pyaasa - 1957): निर्देशक, अभिनेता, निर्माता
12 ओ क्लॉक (12 O'Clock - 1958): अभिनेता
कागज के फूल (Kaagaz Ke Phool - 1959): निर्देशक, अभिनेता, निर्माता
चौदहवीं का चाँद (Chaudhvin Ka Chand - 1960): अभिनेता, निर्माता
साहिब बीबी और गुलाम (Sahib Bibi Aur Ghulam - 1962): निर्माता, अभिनेता
सौतेली माँ (Sauteli Maa - 1962): अभिनेता
बहूरानी (Bahu Rani - 1963): अभिनेता
भरोंसा (Bharosa - 1963): अभिनेता
संझ और सवेरा (Sanjh Aur Savera - 1964): अभिनेता
सुहागन (Suhagan - 1964): अभिनेता
In Search of Guru Dutt (गुरु दत्त की खोज में): नसरीन मुन्नी कबीर की ये एक खास डॉक्यूमेंट्री है, जो गुरु दत्त की लाइफ और उनके काम को गहराई से दिखाती है। इसमें उनके परिवार, दोस्तों और साथ काम करने वालों के इंटरव्यू भी हैं।
Pyaasa: The Filmmaker and the Muse (प्यासा: फिल्म निर्माता और प्रेरणा): एक और डॉक्यूमेंट्री जो उनकी सबसे फेमस फिल्म प्यासा पर फोकस्ड है।
उनके जीवन पर सीधे तौर पर कोई बड़ी फीचर फिल्म नहीं बनी है, हालांकि कागज के फूल को अक्सर उनकी अपनी लाइफ का आइना माना जाता है।
गुरु दत्त पर लिखी किताबें:
Guru Dutt: A Life in Cinema (गुरु दत्त: सिनेमा में एक जीवन): नसरीन मुन्नी कबीर की ये बुक गुरु दत्त की लाइफ और उनके फिल्मी करियर पर सबसे खास और पूरी जानकारी देती है। इसमें उनके खत, इंटरव्यू और फिल्मों का डीप एनालिसिस है।
Guru Dutt: 10 Years with Guru Dutt (गुरु दत्त: गुरु दत्त के साथ 10 साल): अबरार अल्वी ने ये किताब लिखी है, जो गुरु दत्त के साथ काम करने वाले और साहिब बीबी और गुलाम के डायरेक्टर थे। इसमें उनके साथ काम करने के पर्सनल एक्सपीरियंस बताए गए हैं।
Longing for Return: Notes on the Films of Guru Dutt: इस बुक में उनके फिल्मी नजरिए को गहराई से समझा गया है।
इसके अलावा, गुरु दत्त के फैमिली मेंबर्स, जैसे उनके बेटे अरुण दत्त ने भी उनकी लाइफ और काम पर कुछ किताबें लिखी हैं।