ओशो (रजनीश) का मूल नाम चंद्र मोहन जैन था, उन्हें एक भारतीय आध्यात्मिक दार्शनिक के रूप में, और एक ऐसे नास्तिक के रूप में देखा जाता है जो न केवल वेदों का खंडन करता है, बल्कि उनपर अपने लंबे लंबे वक्तव्यों में स्वतंत्रता, ध्यान, प्रेम, और सामाजिक मान्यताओं जैसे विषयों को तार तार करते हैं, और स्थापित करते हैं एक ऐसा दर्शन जिसमें किसी भी धर्म के अगुआ का आना वर्जित नहीं है लेकिन, केवल बुद्धि के बाल पर।
उनकी शिक्षा आधुनिक मनोविज्ञान ध्यान, तर्क और विद्रोही स्वभाव के माने जाते है।
बचपन से ही ओशो धार्मिक ढोंग और आस्था पर सवाल पूछते थे, यही उनकी आध्यात्मिक सोच का बीज था।
ओशो अपने माता-पिता के बारे में कहते हैं:
"मैंने इस दंपति को उनके प्यार, उनकी आत्मीयता और उनके लगभग एकत्व के कारण चुना था।"

oshonisarga वेबसाईट के अनुसार, ओशो अपनी दादी की मृत्यु के बाद, ननिहाल चले गए, वहाँ वे उन्हें प्रेम, स्वतंत्रता और सम्मान का एक असाधारण वातावरण प्रदान करते हैं। उनके स्वयं के अनुसार, यह उनके विकास और सत्य की खातिर हर चीज पर निडरता से सवाल उठाने और चुनौती देने के उनके स्वभाव पर एक बड़ा प्रभाव था। वे 1932-से 1939 तक अपने ननिहाल, कुचवाड़ा में ही रहे।
माना जाता है उनका मृत्यु का पहला अनुभव वर्ष 1938 में हुआ, जब एक यात्रा के दौरान उनके नाना की मृत्यु हुई, ओशो उस समय 7 वर्ष के थे, उनके नाना के देहांत के समय उनका सर ओशो की गोद में था, वे बैलगाड़ी में बैठकर नज़दीकी डॉक्टर के पास पहुँचने के लिए लंबी यात्रा कर रहे थे। इसका उनके आंतरिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। ओशो बाद में कहते हैं,
उनके मौन के उस क्षण में मैंने बहुत कुछ सीखा... मैंने एक नई खोज, एक नई तीर्थयात्रा शुरू की।
वर्ष 1938 में वे फिर अपनी दादी के साथ अपने माता पिता के गाँव गए, जहां उनका सचूल में दाखिला करवाया गया, जितने वे विद्रोही प्रवृति के हैं उतने ही असाधारण और प्रतिभाशाली भी। माना जाता है, वे अपने शुरुआती वर्षों की तरह ही जीवन के प्रति एकाकी दृष्टिकोण बनाए रखते हैं।

वर्ष 1945, अपनी आयु के 14 वे वर्ष में एक ज्योतिष ने ओशो के लिए भविष्यवाणी की, जिसमें कहा गया की ओशो 7 वर्ष से अधिक नहीं जी सकेंगे, इसी से प्रेरित होकर उन्होंने एक प्रयोग करने का तय किया, मृत्यु की प्रतीक्षा में सात दिनों का एक प्रयोग, जैसा कि ओशो ने उद्धृत किया है: "यदि यह बच्चा सात वर्ष से अधिक जीवित रहता है, तभी मैं कुंडली बनाऊंगा। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका सात वर्ष से अधिक जीवित रहना असंभव है, इसलिए यदि बच्चे की मृत्यु निश्चित है तो कुंडली बनाना व्यर्थ है; इसका कोई लाभ नहीं होगा। यह लगभग निश्चित है कि इस बच्चे की मृत्यु इक्कीस वर्ष की आयु में होगी। हर सात वर्ष में उसे मृत्यु का सामना करना पड़ेगा।"
जीवन के इक्कीस वें वर्ष में यानी 21 मार्च 1953, माना जाता है कि यही वो वर्ष था जब उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई:
कई जन्मों से मैं स्वयं पर कार्य कर रहा था, संघर्ष कर रहा था, हर संभव प्रयास कर रहा था - और कुछ भी नहीं हो रहा था। प्रयास ही एक बाधा बन गया था... ऐसा नहीं है कि बिना खोजे ही मंजिल मिल जाती है। खोज आवश्यक है, लेकिन एक समय ऐसा आता है जब खोज को छोड़ना पड़ता है... और उस दिन खोज रुक गई... और यह अनुभव होने लगा।

ओशो की स्नातक एवं परास्नातक की शिक्षा सागर विश्वविद्यालय (अब डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय (DHSGSU) है से हुई है, इन उपाधियों के अलावा उन्होंने अखिल भारतीय वाद-विवाद चैंपियन और स्वर्ण पदक विजेता भी रहे हैं, कह सकते हैं वे उनमें वाक्पटुता की कला थी ही, इसी कला से उन्होंने पूरे भारत में अपने सार्वजनिक भाषणों और वाद-विवाद के लिए एक ज़बरदस्त ख्याति अर्जित की है।
*और अब यह कहना कतई जल्दी नहीं है कि यही से "Osho's Philosophy" का खाका बनना शुरू हुआ।
वर्ष 1958, जब ओशो की नियुक्ति जबलपुर कॉलेज के एक प्रोफेसर के रूप में हुई, उनकी नियुक्ति यहाँ दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में हुई, जहाँ उन्होंने 1966 तक अध्यापन कार्य किया। वे अक्सर विवादास्पद तरीकों का इस्तेमाल करते थे, जो उन्हें और अधिक लोकप्रियबना रहा था। एक शक्तिशाली और जोशीले वाद-विवादकर्ता होने के साथ-साथ, वे भारत भर में अक्सर और व्यापक रूप से यात्रा करते हैं, आचार्य रजनीश के रूप में विशाल जनसमूह को संबोधित करते हैं और सार्वजनिक वाद-विवादों में रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं को चुनौती देते हैं।
यहाँ यह कहना कि वे अपनी बुद्धि, चातुर्य, वाक कला के माध्यम से भारत-भर में व्यापक रूप से विख्यात हुए, इन विशाल जनसमूह को संबोधित करना और वहाँ रूढ़िवादी धार्मिक प्रधानों को चुनौती देना वे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना चुके थे।
वर्ष 1960 से ही उन्होंने अध्यातमिक यात्राओं का सिलसिला शुरू कर दिया था, उनकी बातें तेज, तीखी और सीधे मुद्दे पर थीं। लोग उन्हें “आधुनिक बुद्ध” कहने लगे क्योंकि वे परंपरा को चुनौती देते थे।
वर्ष 1962 में, उन्होंने अपने पहले ध्यान केंद्र खोले, उस केंद्र को जीवन जागृति केंद्र (जीवन जागरण केंद्र) के नाम से जाना जाता है, उस समय उन्होंने अपने आंदोलन का नाम जीवन जागृति आंदोलन (जीवन जागरण आंदोलन) रखा।

वर्ष 1966, इसके बाद उन्होंने अपने जीवन का महत्वपूर्ण कदम उठाया, उन्होंने प्रोफेसर की नोकरी छोड़ दी और मानव चेतन के उत्थान के लिए स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दिया।
इस समय वे भारत में बहुत लोकप्रिय हो चुके थे, वे 20,000 से 50,000 लोगों के जनसमूह को संबोधित करने लगे थे, वे देश के बड़े बड़े शहरों में बड़े-बड़े जनसमूह को संबोधित करने लगे थे। वे वर्ष में चार बार दस दिवसीय गहन ध्यान शिविरों का आयोजन करते थे।

इसके बाद वर्ष 1969 में ओशो द्वारा हिंदी में दिए गए प्रवचन और वार्ताएं अंग्रेजी अनुवाद में उपलब्ध होने लगीं, जिससे उनका प्रभाव और अधिक व्यापक हो गया और उनकी बातें विदेशों में फैलने लगीं।
इसके बाद उसी वर्ष, कश्मीर से उनके पश्चिमी अनुयायियों द्वारा पहलगाम में एक वार्ता के लिए बुलाया गया। यह पश्चिमी श्रोताओं के सामने अंग्रेजी में सार्वजनिक रूप से बोलने का उनका पहला अवसर था। "जब मैंने अंग्रेजी का प्रयोग शुरू किया, तो दो-तीन महीने तक मैं हिंदी में सोचता और अंग्रेजी में बोलता था। यह दोहरी समस्या थी।"

अब उनकी लोकप्रियता देश भर में ही नहीं रह गई थी, वे अग्रेज़ी माध्यम से देश के बाहर भी लोकप्रिये हो चले थे।
14 अप्रैल 1970, ओशो ने अपने साधकों को गतिशील ध्यान से परिचित करवाया, वे मानते हैं,
यह एक ऐसी ध्यान विधि है जिसमें आपको
निरंतर सतर्क, सचेत और जागरूक रहना होता है।
आप जो भी करें, साक्षी बने रहें।
उन्होंने स्वयं भारत भर के विभिन्न शहरी उद्यानों, समुद्र तटों और पर्वतीय आश्रमों में अपने पूर्व शिष्यों के बीच ध्यान का संचालन किया।
इसके बाद उसी वर्ष ओशो बॉम्बे पहुँचे, इससे पहले जबलपुर में उनका एक विदाई समारोह, इसके बाद वे, 1 जुलाई को ओशो बंबई चले गए और जल्द ही वुडलैंड अपार्टमेंट्स में रहने लगे। अपने ओशो लगभग 50 लोगों को नियमित रूप से शाम के प्रवचन देते थे, जिनमें उनके पहले पश्चिमी साधकों का समूह भी शामिल था। शाम के प्रवचन अक्सर ध्यान, कीर्तन या शक्तिपात के साथ समाप्त होते थे । ओशो 1974 तक बंबई में रहे।

उसी वर्ष एक नाव-सन्यासियों का एक समहू बना, वे हिमालय के पहाड़ों में, हिमाचल प्रदेश के मनाली में एक ध्यान शिविर का आयोजन किया, यह शिविर, 26 सितंबर से 5 अक्टूबर, 1970 तक चला। इस शिविर में उन्होंने पहले दी अपने नव-सन्यासियों को दीक्षा दी।

21 मार्च यह तारीख ओशो के इतिहास में एक महत्वपूर्ण बिन्दु है, इस लेख में ऊपर 21 मार्च 1953, जब ओशो 21 वर्ष थे, जब उनके ज्ञान का पहला आभास हुआ, और उसके बाद इस समय 21 मार्च 1970, को उन्होंने ज्ञानोदय दिवस मनाया। फिर उसी दोपहर पुणे में, जहाँ उनकी सचिव, माँ योग लक्ष्मी ने उनके लिए 33 कोरेगांव पार्क खरीदा। जल्द ही उनके चारों ओर एक जीवंत आश्रम विकसित हो गया, जो दुनिया भर से लोगों को आकर्षित करता था, और हर साल 100,000 से अधिक लोग इसके द्वार से गुजरते थे।
इसके बाद ओशो आश्रम में हर दिन 90 मिनट का प्रवचन देते थे, यह भाषण हर महीने हिन्दी और इंग्लिश दोनों ही बहशाओं में दिया जाता था।

ओशो का ज्ञान सीमित नहीं रहा वे अपने उनके प्रवचनों में योग, जेन, ताओवाद, तंत्र और सूफीवाद सहित सभी प्रमुख आध्यात्मिक मार्गों की गहरी समझ मिलती है। ओशो गौतम बुद्ध, यीशु, लाओ त्ज़ू और कई अन्य रहस्यवादियों पर भी प्रवचन देते हैं। उनके इन प्रवचनों को 600 से अधिक खंडों में संकलित किया गया है और 50 भाषाओं में अनुवादित किया गया है।

वे अपने भाषण में कोई भी विषय यूँ ही नहीं घुसते, वे इस बात का बेहद खास ख्याल रखते थे, कि कौन सी बात किस समय जा रही है, शाम के समय, ओशो प्रेम, ईर्ष्या, ध्यान जैसे व्यक्तिगत विषयों पर लोगों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। इन दर्शनों को 64 दर्शन डायरियों में संकलित किया गया है। ओशो इन सभाओं में संन्यास भी देते थे और शिष्यों को ऊर्जा संचारित करने के सत्र भी आयोजित करते थे।
ओशो का आश्रम एक ओर वैश्विक स्तर पर अपनी अद्वितीय चिकित्सा पद्धतियों और विकास केंद्र के रूप में पहचान बना रहा था, लेकिन दूसरी ओर, उनकी विवादास्पद प्रकृति के कारण उन्हें धार्मिक कट्टरपंथियों से गंभीर विरोध और जानलेवा हमले का सामना भी करना पड़ रहा था। यह ओशो के जीवन और उनके आंदोलन के विरोधाभासी माहौल को दर्शाता है।

आश्रम में लगभग 15 वर्ष तक लगातार प्रवचन देने के बाद, ओशो ने स्वेच्छा से तीन वर्षों के लिए सार्वजनिक मौन धारण किया।
पीठ की अपक्षयी बीमारी के लिए आपातकालीन सर्जरी की संभावित आवश्यकता को देखते हुए, और अपने निजी डॉक्टरों की सलाह पर, वे अमेरिका की यात्रा पर गए। इसी वर्ष, उनके अमेरिकी शिष्यों ने ओरेगन में 64,000 एकड़ का एक फार्म खरीदा और उन्हें आने का निमंत्रण दिया। अंततः वे अमेरिका में रहने के लिए सहमत हो गए और अपनी ओर से स्थायी निवास के लिए आवेदन दाखिल करने की अनुमति दी।
ओशो 1981 में अमेरिका पहुँचे, एक खाली स्थान जो अधिक चराई के कारण अब उपजाऊ नहीं रहा, को फिर उपजाऊ बनाया गया, और रजनीशपुरम की स्थापना होती है, इस शहर में लगभग 5000 लोगों का निवास हुआ। या कहें 5,000 लोगों ने यहाँ अपनी सेवा दी। यहां वार्षिक ग्रीष्मकालीन उत्सव आयोजित किए जाते हैं जो दुनिया भर से लगभग 15,000 आगंतुकों को आकर्षित करते हैं।
यह शहर अपने आप में एक प्रयोग था-

ओशो के रोल्स रॉय्स वाली कहानी तो सभी ने सुनी है, बात जरा यूं है कि उनके अनुयायियों अथवा भक्तों ने उन्होंने अपनी बहुत सी निजी संपत्ति दान में दी है, उसी में शुमार ये 93 रोल्स रॉय्स भी है। उस समय वे दुनिया में इन कारों के सबसे बड़े मालिक थे। दरअसल, उनके शिष्य तो चाहते थे कि वे उन्होंने 365 गाड़ियां दे, यानी हर दिन के लिए एक कार।
नवंबर 1984 तक वे सार्वजनिक रूप से नहीं बोलते थे, केवल अपनी रोल्स रॉयस में धीरे-धीरे गुजरते थे जबकि उनके शिष्य सड़क पर खड़े रहते थे। ओशो ने रोल्स रॉयस कारों के प्रति अपने लगाव के बारे में बताया
वर्ष 1985 में अपना मौन तोड़ा, जुलाई 1985, ओशो ने अक्टूबर 1984 में अपना मौन समाप्त किया और जुलाई 1985 तक, रजनीशपुरम में स्थित दो एकड़ के ध्यान कक्ष, रजनीश मंदिर में एकत्रित हजारों साधकों के लिए प्रत्येक सुबह अपने सार्वजनिक प्रवचन फिर से शुरू कर दिए।

1985 में ओशो को अमेरिका में गिरफ्तार किया गया और बाद में निर्वासित किया गया। दुनिया भर में ओशो की लोकप्रियता इतनी बढ़ चुकी थी, वे जहां जाए वहाँ जमावड़ा लाखों का रहता ही, लेकिन लोग खुद भी रजनीशपुरम का चक्कर लगते ही रहते। माना जाता है कि, अमेरिका की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अमेरिका के साथ-साथ 21 देशों ने उन्हें प्रवेश देने से मना कर दिया। इसमें भी दो तरह के तर्क दिए जाते हैं एक तर्क उनका जो उनकी आलोचना करते हैं, आलोचना में भी निंदा करते हैं वे मानते हैं, रजनीशपुरम का पतन कानून और राजनीति का संघर्ष था। वहीं दूसरी और उनके समर्थकों का मानना है, ओशो के आध्यात्मिक वर्चस्व के साथ साथ उनका सामाजिक वर्चस्व भी हवा पकड़ चुका था इस शहर का पतन केवल आध्यात्मिक शक्ति से डर का परिणाम था।

इसके बाद 28 अक्टूबर, 1985 में ही बिना वारंट के, संघीय और स्थानीय अधिकारियों ने उत्तरी कैरोलिना के शार्लोट में ओशो और उनके देखभाल करने वालों को आव्रजन धोखाधड़ी के आरोप में बंदूक की नोक पर गिरफ्तार कर लिया। जबकि अन्य को रिहा कर दिया गया, उन्हें बारह दिनों तक बिना जमानत के हिरासत में रखा गया।
कुछ घटनाओं में संकेत यह भी मिलता है कि संभवतः ओशो को ओक्लाहोमा काउंटी जेल और एल रेनो संघीय कारागार में रहते हुए भारी धातु थैलियम से जहर दिया गया था।
वर्ष 1985 में जब रजनीशपुरम का पतन हुआ, ओशो को अमेरिका में कानूनी और सुरक्षा संबंधी दबावों के कारण, उन्होंने एक ऐसी कानूनी चाल (Alford Plea) का सहारा लिया जिसके तहत उन्होंने अपराध स्वीकार नहीं किया लेकिन फिर भी जुर्माना भरा और उन्हें देश छोड़कर जाना पड़ा (निर्वासित होना पड़ा)। इस तरह यह मामला कानूनी तौर पर बंद हो गया।

अमेरिका से निर्वासित होने पर वे सीधे भारत आए और मनाली के रिज़ॉर्ट में रहने लगे। इसके बाद अलगे वर्ष, 1986 में ही उन्होंने नेपाल यात्रा की, इस अचानक हुई गिरफ़्तारी के बाद, कुछ समय के लिए ओशो के प्रवचन रुक गए थे, जो फिर एक बार नेपाल में शुरू हुए। लेकिन अगले दो महीनों तक प्रतिदिन दो बार प्रवचन होने के बाद, फरवरी में, नेपाली सरकार उनके अंतरराष्ट्रीय शिष्यों और निकटतम सेवकों को वीजा देने से इनकार कर देती है। वे नेपाल छोड़कर अपनी विश्व यात्रा पर निकल पड़ते हैं।

इस समय ओशो विश्व यात्रा पर थे, और नेपाल से निकाल सीधे ग्रीस पहुँचे, जहाँ उन्हें 30 दिन का पर्यटक वीज़ा दिया गया। यहाँ भी वह आराम से समय नहीं बिता सके, अभी मात्र 18 दिन ही हुए थे और 5 मार्च को, ग्रीक पुलिस ने उनके घर में जबरन घुसकर उन्हें बंदूक की नोक पर गिरफ्तार कर लिया और देश से निकाल दिया। तात्कालिक ग्रीक मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, सरकार और चर्च के दबाव के कारण पुलिस ने यह कार्रवाई की।
इसके बाद ओशो अमेरिका-यूरोप के लगभग 17 देशों में जाने मिजान बनाया, लेकिन किसी भी देश ने उन्हें अनुमति नहीं दी, कई देशों ने तो उनका प्राइवेट जेट जमीन पर भी नहीं आने दिया।

इसके बाद मार्च में ओशो उरुग्वे पहुँचे और वहाँ के राष्ट्रपति ने उन्हें स्थाई नागरिकता देने की बात कर ली थी, लेकिन फिर एक रात पहले ही अमेरिका से फोन आता है कि अगर ओशो को स्थाई निवास दिया गया तो जो उरुग्वे पर अमेरिका का छह अरब डॉलर का कर्ज तुरंत चुकाना होगा और आगे कोई ऋण नहीं दिया जाएगा। ओशो को 18 जून को उरुग्वे छोड़ने का आदेश दिया गया।
इस पूरे दौरे में ओशो को जब हर जगह से वीज़ा रद्द करने की खबर मिलती रही तब वे, 29 जुलाई 1986 को, ओशो मुंबई, भारत लौट आए।

भारत लौटने पर वे, जुहू बीच पर, सूरज प्रकाश के घर 'सुमिला' रहे, और वही से प्रतिदिन प्रवचन देते।
1987, में वे जब पुणे आए तो उनके आश्रम का पुराना नाम बदल कर राजनिषधाम कर दिया। उन्होंने दिन में दो बार प्रवचन देना शुरू किया। विश्व भर से हजारों साधक ओशो की उपस्थिति में पुनः एकत्रित हुए, और उनके चारों ओर एक नया समुदाय विकसित हुआ।
जुलाई 1988, ओशो ने 14 वर्षों में पहली बार प्रत्येक शाम के प्रवचन के अंत में स्वयं ध्यान का नेतृत्व करना शुरू किया। उन्होंने ' द मिस्टिक रोज़' नामक एक क्रांतिकारी नई ध्यान तकनीक भी प्रस्तुत की।

ओशो ने बताया बताया कि उनका नाम उनका नाम विलियम जेम्स के शब्द 'ओशनिक' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ है सागर में मिल जाना।
उन्होंने कहा, "ओशनिक अनुभव का वर्णन करता है, लेकिन अनुभवकर्ता के बारे में क्या? उसके लिए हम 'ओशो' शब्द का प्रयोग करते हैं।" उन्होंने यह भी बताया कि सुदूर पूर्व में ऐतिहासिक रूप से 'ओशो' का अर्थ है "वह धन्य व्यक्ति, जिस पर आकाश से फूलों की वर्षा होती है।" ' द जोक इज़ ओवर ' और ' व्हाट इज़ एन "ओशो" ' भी देखें।
बताया गया है कि ओशो विष के प्रभाव से उबरने के लिए विश्राम कर रहे थे, जिसका उनके स्वास्थ्य पर अब तक गहरा असर पड़ चुका था। 10 अप्रैल 1989 को उन्होंने सार्वजनिक प्रवचन देना बंद कर दिया, और ज़ेन पर अपने अंतिम प्रवचन के साथ प्रवचन समाप्त किया। उनके अंतिम शब्द थे: 'स्मरण करो कि तुम बुद्ध हो - सम्मासती'।

ओशो ने पूना आश्रम में एक महत्वपूर्ण बदलाव की शुरुआत की, जिसके तहत उन्होंने गौतम बुद्ध सभागार में प्रतिदिन संध्या दर्शन के लिए आना शुरू किया।
इसी दौरान, उन्होंने "ओशो श्वेत वस्त्र बंधुत्व" (Osho White Robe Brotherhood) नामक एक विशेष समूह का आरंभ किया। इस पहल के तहत:
सभी संन्यासियों (Sannyasins) और गैर-संन्यासियों (Non-sannyasins) से अनुरोध किया गया कि वे संध्या दर्शन में भाग लेने के लिए श्वेत वस्त्र (White Robes) पहनें।
यह सफेद वस्त्र पहनना आश्रम के भीतर सामूहिकता (Collectivity), सादगी और ध्यान के माहौल को बढ़ावा देने के लिए एक प्रतीक बन गया।
1990, जनवरी के दूसरे सप्ताह तक ओशो का शरीर अत्यधिक कमजोर हो चुका था।

17 जनवरी: वे अंतिम बार गौतम बुद्ध सभागार पहुँचे। उन्होंने अपने संन्यासियों को हाथ जोड़कर अंतिम नमस्कार किया और फिर लौट गए। 18 जनवरी, शारीरिक दुर्बलता इतनी बढ़ गई कि वे सभागार में आने में भी असमर्थ थे।

19 जनवरी को ओशो की नाड़ी अनियमित हो गई। जब उनके डॉक्टर ने जीवन रक्षक उपाय (हृदय पुनर्जीवन) के बारे में पूछा, तो ओशो का उत्तर निर्णायक था:
"नहीं, बस मुझे जाने दो। अस्तित्व अपना समय खुद तय करता है।"
इसके तुरंत बाद, उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। शाम 7 बजे उनके पार्थिव शरीर को गौतम बुद्ध सभागार में अंतिम समारोह के लिए लाया गया, जिसके बाद उन्हें अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट ले जाया गया।
यह घटना उनके शांत और जागरूक विदाई को दर्शाती है, जहाँ उन्होंने जीवन और मृत्यु की प्रक्रिया को प्रकृति के हाथों में छोड़ दिया।
उनके समर्थकों अगाध, प्रेम और सम्मान से वे कहते हैं
ओशो का
कभी जन्म नहीं हुआ,
कभी मृत्यु नहीं हुई, वे केवल 11 दिसंबर 1931 से 19 जनवरी 1990
के बीच इस ग्रह पृथ्वी पर आए थे।