गोस्वामी तुलसीदास: जीवन, कृतियाँ, रामचरितमानस और साहित्यिक योगदान का सम्पूर्ण विवरण

November 24, 2025
tulsidas

तुलसीदास के व्यक्तिगत जीवन का सामान्य परिचय

तुलसीदास के जन्म को लेकर कई मतभेद चले आते हैं, साथ ही उनके जीवन चरित्र भी कई लेखकों द्वारा लिखे गए हैं, तुलसीदास के जीवन के बारे में बाबा वेणीमाधव दास कृत 'गोसाई चरित', रघुवरदास कृत 'तुलसी चरित' और नाभादास कृत भक्तमाल में उल्लेख किया है। तुलसीदास के जन्म को लेकर विद्वानों में मतभेद है। गोसाई चरित एवं तुलसीचरित में तुलसीदास का जन्म संवत् 1554 दिया है। वेणीमाधव दास की पुस्तक में तो श्रवण शुक्ला सप्तमी तिथि दी हुई है। संवत् ग्रहण करने से गोस्वामी तुलसीदास की आयु 126-127 वर्ष की होती है। लेकिन 'शिव सिंह सरोज' में तुलसीदास का जन्म संवत् 1583 दिया है।

तुलसीदास का सर्वमान्य जन्म वर्ष सं 1583 (1532 ई)माना गया है, इनकी जन्म तिथि की तरह की जन्म स्थान को लेकर भी मतभेद हैं, कई विद्वान इनका जन्म राजापुर मानते हैं। इसी स्थान को शिवसिंह सेंगर, आचार्य शुक्ल और रामगुलाम द्विवेदी की मान्यता प्राप्त है। जबकि लाला सीताराम, गौरीशंकर हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी तथा डॉ. रामदत्त भारद्वाज ने सोरों को तुलसीदास का जन्म मानते हैं। 

लेकिन सर्वमान्य स्थान राजापुर ही माना गया है।

मान्यता है की उनके जन्म के समय के ग्रह-नक्षत्र अशुभ माने गए थे, और ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक उनके लिए हानिकारक होगा। इसलिए तुलसीदास को उनके माता पिता द्वारा त्याग दिया गया। जिसके बाद उनके एक दासी मुनिया ने 5 वर्ष की उम्र तक पालन पोषण किया, लेकिन जल्द ही वे भी चल बसी।

अंतत: वे नरहर्यानन्द (नरहरिदास) के पास पहुँचे। नरहरिदास ने तुलसी को अनाथ बालक समझकर उन्हें अपने साथ रखकर उन्हें शिक्षा-दीक्षा दी। जनश्रुतियों के अनुसार तुलसीदास ने रामकथा भी पहले बाबा नरहरिदास से ही सुनी है। बाद में तुलसी ने काशी में रहकर विद्वान महात्मा शेष सनातन जी से वेद, वेदांग, दर्शन, इतिहास, पूरण का ज्ञान प्राप्त किया। तुलसीदास के संबंध में यह भी जनमानस प्रसिद्ध है कि अपनी युवा अवस्था में पत्नी-प्रेम से आसक्त होकर, बिन बुलाएँ ससुराल पहुँच गए। उनकी पत्नी रत्नावली से उन्हें धिक्कार एवं फटकार मिली।

लाज न लागत आपकों, दौरे आयहु साथ। 
धिक-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौ मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह मम, तामे जैसी प्रीति।
तैसी जो श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति॥

इस धिक्कार के बाद तुलसीदास का जीवन पलट गया, अपनी आसक्ति के प्रवाह को भक्तिमार्ग की ओर मोड दिया और राम भक्त बने। तुलसीदास की भक्ति दास्य भाव की है।

भारतीय साहित्य ने अपनी प्रौढ़ता के कई स्वरूप देखे हैं, वहीं हिन्दी के विकासक्रम में हिन्दी भाषा को ने अपने कई रूप देखें हैं-कभी, राजस्थानी स्वरूप देखे हैं, वहीं हिन्दी के विकासक्रम में हिन्दी भाषा को ने अपने कई रूप देखें हैं-कहीं डिंगल, पिंगल, ब्रज, राजस्थानी, खड़ी हिन्दी, कौरवी, मैथली, उर्दू, लेकिन हिन्दी काव्य का जो अनुपम रूप तुलसी बाबा ने अपनी कवीकला से अवधि में दिखाया है उससे न सिर्फ हिन्दी पट्टी बल्कि पूरा विश्व आज भी चकित हैं। हिन्दी साहित्य के आखिरी आचार्य जिनकी बदौलत हिन्दी साहित्य ने अपना प्रौढ़ रूप पकड़ वह स्वयं, आचार्य राम चंद्र शुक्ल कहते हैं, “हिंदी साहित्य अपनी पूर्ण प्रौढ़ता को तुलसी के काव्य में प्राप्त करता है।”

कई लोग यह कह सकते हैं कि अपने जन्म के 900 वर्ष बाद भी कोई इतना प्रासंगिक कैसे हो सकता है? इस बात का श्रेय केवल उनके काव्य को नहीं जाता बल्कि उस काव्य के संरक्षकों को, और समय समय पर संशोधित प्रतियों के प्रकाशकों को भी जाता है। जिनका मानना है कि तुलसीदास को पढ़ा जाना आज के युग के लिए उतना ही अवशयक है जितना उस समय था।

हिन्दी साहित्य में तुलसीदास

-हिंदी साहित्य में मध्यकाल को दो भागों में विभाजित किया गया है - पूर्वमध्यकाल और उत्तरमध्यकाल। पूर्वमध्यकाल को भक्तिकाल (समय- 1318 से 1643 ई.) कहा गया है। डॉ. गियर्सन ने भक्तिकाल को स्वर्ण युग कहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल को दो भागों में विभक्त किया है, निर्गुण और सगुण। निर्गुण में फिर से दो भागों में विभाजित किया है 1. ज्ञानाश्रय या ज्ञानमार्गी काव्य और 2. प्रेमाश्रय या प्रेममार्गी काव्य। इसी तरह से सगुण को दो भागों में विभाजित किया है 1. रामभक्ति काव्यधारा और 2. कृष्ण काव्यधारा। रामभक्ति काव्य धारा में ही राम का चरित्र-चित्रण नहीं किया बल्कि प्रत्येक युग में राम से संबंधी प्रत्येक युग में रामचरित काव्य रचा गया है। 

तुलसीदास का रचनाएं

नागरी प्रचारणी सभा के अनुसार तुलसी की 12 पुस्तकें हैं।
अवधी भाषा में रचित कृतियाँ -
रामचरित मानस, रामलला नछु, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामाज्ञा प्रश्न,
ब्रज भाषा में रचित कृतियाँ -
गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका, कृष्ण गीतावली, कवितावली और वैराग्य संदीपनी।

1. रामचरित मानस

इस ग्रन्थ का रचनाकाल 1574ई. है। यह अयोध्या में प्रारम्भ करके अंतिम भाग काशी में समाप्त किया है। यह कृति अवधी भाषा में रचित है। रामचरितमानस का महाकाव्य में स्थान माना जाता है। यह कृति सात कांडों में विभाजित है। बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धकाण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड आदि। इसे पूर्ण करने का समय दो वर्ष सात महीने और छब्बीस दिन का समय लगा है। इस कृति के बारे में जनमान्यता है, कि तुलसीदास ने सर्वप्रथम रामचरितमानस का पाठ सबसे पहले अपने घनिष्ठ मित्र रसखान को सुनाया।
तुलसीदास ने रामचरितमानस में मर्यादा पुरुषोत्तम राम का वर्णन किया है। इसमें छंद का प्रयोग किया गया है। छंद विधान में चौपाई, दोहा, सोरठा, रोला छप्पय, हरिगीतिका, त्रिभंगी, अनुष्टुम, इंद्रजा, त्रोटक और भुजंगप्रयात है। इस ग्रन्थ के माध्यम से तुलसीदास ने आम जनता को आदर्श समाज की स्थापना का संदेश देते हैं। 

आचार्य शुक्ल के अनुसार तुलसी के राम और वाल्मीकि के राम में क्या अंतर है?

आचार्य शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, “भक्तिकाल” में लिखते हैं:

“तुलसीदास सभ्यता और नीति के कवि हैं। उनके रामचरित में नीति, धर्म और लोकमंगल का जो भाव है, वह हिंदी साहित्य की प्रौढ़ता सिद्ध करता है।”(स्रोत: हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल)

दूसरी ओर,

वाल्मीकि की रामकथा पर शुक्ल स्पष्ट रूप से कहते हैं:

“वाल्मीकि का राम मनुष्य रूप है, उसे क्रोध, शोक, संदेह और मानवीय दुर्बलताओं का अनुभव होता है।”(स्रोत: शुक्ल के तुलनात्मक विश्लेषण, काव्य में चरित्र-चित्रण संबंधी टिप्पणियाँ)

रामचरित मानस में भाषा-प्रयोग, संवाद-तकनीक, आख्यान संरचना और छंदों का भाषिक स्वरूप

मानस की भाषा हमें तीन स्तर पर देखने को मिलती है, तत्सम, तद्भव, और देशज तुलसी अपने वाकवैभव और सूझबूझ से संस्कृत भाषा का प्रयोग केवल औपचारिक, धार्मिक, या दार्शनिक प्रसंगों में ही करते हैं, शब्द जैसे “धर्म”, “शरण”, “कारण”, “मंगल”, “जन्म”, “करुणानिधान” इसी परंपरा के उदाहरण हैं। इसके पास ही “भइया”, “देखेँ”, “लगे”, “चहुँ ओर” जैसे तद्भव रूप आते हैं, जो पूरे कथानक को बोली की सहजता देते हैं। तुलसीदास देशज शब्दों को भी बराबर जगह देते हैं: “खोर”, “कूदि”, “छूटें”, “डरपत” जैसे लोकरंग के शब्द मानस की धरती को गाँव-कस्बों के जीवन अनुभव से जोड़ देते हैं।

मानस में फारसी/अरबी के शब्दों का प्रयोग भी देखा गया है, जिसे तुलसी के समय का सामाजिक और एतिहासिक प्रभाव माना जा सकता है। “अजगर” जो फारसी मूल का है, या “दरबार” जैसे शब्द तुलसीदास के समय के बोलचाल परिवेश को प्रतिबिंबित करते हैं। इन बाहरी शब्दों का उपयोग इतना संयमित है कि वे कभी भी काव्य की भारतीयता को भंग नहीं करते, उलटा भाषा को अधिक जीवित और बहती हुई बनाते हैं।

संवाद

तुलसी अपनी संवाद तकनीक का प्रयोग केवल सतही संवाद के लिए ही नहीं, बल्कि इससे वे मनोवैज्ञानिक गहराई देते हैं, कौसल्या-राम का संवाद, जनक-सीता का संवाद, और लक्ष्मण के अनेक उग्र-मृदु एकालाप इस बात का प्रमाण हैं। संवाद अक्सर वाचिक शैली के निकट हैं—ऐसे जैसे पात्र वास्तव में यथार्थ जीवन में बोलते—लेकिन उसी में रूपक, उपमा और सांकेतिक भाषा की सुगंध भी बनी रहती है।(rcs, हिन्दी साहित्य का इतिहास)

मानस में कथा संरचना का भी खास ध्यान रखा गया है, जहां एक ओर तो रामकथा चलती है, जिसे काण्ड में विभाजित किया गया है, इस सम्पूर्ण में केवल 7 काण्ड हैं, लेकिन हर काण्ड में मुख्य कथा के साथ कई गौण कथाएं बहती हैं, जिससे मुख्य कथा बाधा उत्पन्न किए कथानक को गहराई देती है। जैसे अहल्या-उद्धार, समुद्र-मंथन का पुनःकथन, गरुड़-काकभुशुण्डि संवाद, शबरी प्रसंग आदि। यह उपकथाएँ केवल घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टांत भी हैं। तुलसीदास एक ही प्रसंग में कथा, तत्त्वज्ञान और चरित्र-निर्माण को बुन लेते हैं। इससे मानस का आख्यान न तो एकरेखीय रहता है, एक प्रवाह में।

आप गौर कीजिए जो भी व्यक्ति रामकथा बाँचता है, वह स्वतः ही एक प्रवाह में बहने लगता है, यह कोई संयोग नहीं है बल्कि तुलसी की काव्यकला का ही नमूना है, जहां वे जगह-जगह पर कहुँ/सुनहुँ जैसे शब्दों से कथावाचक का प्रवाह एक उभर कर आता है।

छंद एवं भाषाई स्वरोप

कथावाचक का एक प्रवाह में बहकर कथा करना या एक दो शब्दों से ही मानस इतनी लयात्मक नहीं हुई है अपितु तुलसी की छंद चयन और भाषिक प्रौढ़ता के कारण भी है। मानस में चौपाई-दोहा का आधारभूत ढाँचा है, चौपाई तुलसी की सबसे संतुलित इकाई है: चार चरण, सम लय, और मध्यम गति। दोहा अक्सर चरम बिंदुओं पर आता है जिससे पता चलता है कि कथा अब मोड़ ले रही है। सोरठा तेज़ भाव-उभार लाता है, जबकि छप्पय या गीत प्रसंगों में उल्लास, उत्सव या आध्यात्मिक अनुभव की कंपन बिखेरता है।

भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से कहा जाए तो, चौपाई में तद्भव शब्द, दोहा-सोरठा में तत्सम शब्दों का प्रयोग दिखता है

2. रामलला नहछु

तुलसीदास की यह एक छोटी-सी रचना है, जिसमें 20 छंद हैं। इसमें तुलसीदास ने राम विवाह के अवसर का गीत को उल्लेख किया है। राम विवाह में आई हुई प्रजनन की स्त्रियों का हावभाव का सुंदर वर्णन है। तुलसीदास ने इसे लोक गीत के रूप में गाए जाने के लिए 'सोहर' शैली में की थी। इसकी भाषा अवधी है।

'सोहर' पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार में गाए जाने वाली एक तरह की शैली है, सोहर का सबसे प्रचलित उदाहरण, 

आचार्य शुक्ल सहित परंपरागत हिंदी–अवधी स्रोतों के अनुसार राम के जन्म पर सोहर गाया गया।
“अवनि अंबर भयो उजियारा, राम लखन लिए जाइ।”

3. बरवै रामायण

इस ग्रन्थ का समय सवंत् 1669 है। इसमें 69 बरवै छंद एवं सात काण्ड के माध्यम से रामचरितमानस की पूरी कथा है। यह समय-समय पर रचे गए बरवै छंदों का संग्रह मात्र हैं। यह रचना रहीम के कहने पर की थी। इसे लघु काव्यकृति कहा गया है।

4. पार्वती मंगल

इस का रचनाकाल सवंत् 1643 है। इसमें 164छंद है। इस ग्रंथ में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन है। यह एक खंड काव्य है। यह मंगल काव्य है जिसे मांगलिक अवसरों पर स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य शिव-पार्वती विवाह का वर्णन करना है। इस कृति का आधार कुमार संभव माना जाता है। इसमें विभिन्न रसों, छंदों, अलंकारों का सार्थक प्रयोग हुआ है।

5. जानकी मंगल

इसका रचना काल सवंत् 1643 है। इसमें राम-सीता का विवाह का वर्णन है। इस ग्रंथ में 192 छंदों एवं 24 हरिगीतिका छंदों सहित कुल 216 छंद है। यह छंद गेय है। इसकी भाषा अवधी है।

6. रामाज्ञ प्रश्न

इसे सात सर्गों में लिखा गया है। जिसमें प्रत्येक सर्ग में सात सप्तक और प्रत्येक सप्तक में सात दोहे हैं। इस प्रकार से कुल दोहे 343 हैं। यह रामकथा पर आधारित है। इसमें सीता की धरती प्रवेश कथा वर्णित है। इसकी भाषा अवधी है। यह मुक्तक काव्य है।

7. गीतावली

इसमें रामकथा संबंधित पदावली है। इसे गीतिकाव्य शैली में रचा गया है। इसमें 328 पद हैं। गीतावली का प्रारंभ राम के जन्मोत्सव से होता है। इसमें भी कथ्य के आधारों पर सात काण्डों में विभाजित किया गया है। इसमें 21 रागों को प्रस्तुत किया है।

8. दोहावली

समय-समय पर लिखे गए दोहों का संग्रह है। इसका काल सवंत् 1626 से लेकर सवंत् 1680 तक माना जाता है। इसमें कुल 573 दोहे हैं। यह मुक्तक काव्य की सफलता देखी जा सकती है। इसमें प्रेम, भक्ति, धर्म, नीति, विवेक, अचार-विचार, शास्त्रामत, राम-महिमा आदि विषम का समावेश हैं। इसकी भाषा ब्रज रही है।

9. विनयपत्रिका

तुलसीदास के कृतियों में विनयपत्रिका का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें कुल 279 पद हैं। यह तुलसीदास के अध्यात्मिक जीवन को दर्शाता है। राम के चरणों में भेजी गई गीतात्मक अर्जी के रूप में मानते हैं। तुलसीदास भक्त के रूप में मुखरित हुए हैं। जिस प्रकार तुलसी को जानने के लिए रामचरितमानस समझा जाता है उसी प्रकार से विनयपत्रिका को भी समझा जाता है।

10. कृष्ण गीतावली

इस रचना का समय सर्वत् 1643 और 1650 के बीच माना जाता है। यह पदों का संग्रह है। इसे वृन्दावन की यात्रा के अवसर पर की गई है। इसमें वात्सल्य एवं शृंगार दोनों रसों का प्राधान्य है। कृष्ण गीतावली में सूरदास के भ्रमरगीत शैली का अनुकरण करते हुए 61 पदों मेमिन पूरी कृष्ण के बाल लीला का वर्णन किया है। इसकी भाषा व्रज है।

11. कवितावली

इसमें तुलसीदास के जीवन एवं उनके युग को समझने के लिए महत्वपूर्ण रचना है। कवितावली में राम कथा संबंधी पदावली है। यह ग्रंथ सात काण्डों में विभाजित है। कवितावली में राम के शौर्य का वर्णन एवं हनुमान द्वारा लंका दहन का वर्णन है। वीर, रौद्र और भयानक रस का प्रयोग है। इसमें काशी में फैली महामारी का भी वर्णन है। यह रचना कवित्त सवैया शैली में लिखी गई है। यह मुक्तक काव्य है।

12. वैराग्य संदीपनी

यह एक छोटी से रचना है। इसमें 62 छंद है। इसमें शांत रस प्रमुख है। निर्गुण और सगुण की एकता को दर्शाया है। वैराग्य संदीपनी में तीन प्रकार के छंद है। दोहा, सोरठा और चौपाई।

तुलसीदास का कलपक्ष और भावपक्ष

आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना ।।
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।।
कबित बिबेक एक नहि मोरे। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें।।

अर्थात भावों को व्यक्त करने के लिए अनेक शब्द हैं, उनके अर्थ को समझते हुए भावानुकूल शब्द चयन की जिम्मेवारी कवि पर होती है। कविता को अनेक प्रकार से सजाया जाता है: छंद और प्रबंध की तमाम कोटियों हैं, उनके अलग-अलग मानदंड हैं। रस और भाव के अनेक भेद हैं। कविता में विभिन्न प्रकार के गुण और दोष होते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि उनमें काव्य-रचना के इन व्यवहारों का विवेक नहीं है। वे केवल अनुभूति के सत्य को व्यक्त करने का दावा करते हैं। लेकिन उनकी कविता से गुजरने पर पता चलता है कि काव्य की चारुता और उत्कर्ष के लिए जो भी मानदंड उस समय तक विकसित हुए थे, उन सभी का सुंदर और संयमपूर्ण समायोजन तुलसीदास की कविता में हुआ है। यही कारण है कि रस, अलंकार, शब्द प्रयोग, रूपगत विविधता के बावजूद उनमें कहीं भी शिल्पगत पच्चीकारी दिखाई नहीं देती।

कई रीतिवादी कवियों की भांति उनके काव्य में भाव-शिल्पगत आडंबर नहीं है, आचार्य शुक्ल और श्याम सुंदर दास दोनों मानते हैं की तुलसीदास अवधि और ब्रज के श्रेष्ठ कवि हैं।

ब्रजभाषा तथा अवधी पर तुलसीदास के अधिकार को रेखांकित करते हुए श्यामसुंदर दास ने लिखा है, "इन दोनों भाषाओं पर उनकी रचनाओं में इतना अधिकार दिखाई देता है कि जितना स्वयं सूरदासजी का ब्रजभाषा पर और जायसी का अवधी पर न था।"

काव्य भाषा के रूप में अवधी तथा ब्रजभाषा का प्रयोग करने के साथ ही तुलसीदास ने विभिन्न भाषाओं के लोक प्रचलित शब्दों से अपनी भाषा को समृद्ध किया है। उदाहरणस्वरूप


साहिब उदास भये दास खास खीस होत।
मेरी कहा चली? हौं बजाय जाय रह्यौ हौं ।।

यहाँ अरबी के 'साहिब' शब्द का तुलसीदास ने ब्रजभाषा के साथ सहजतापूर्ण प्रयोग किया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि तुलसीदास का कला एवं भाव पक्ष

1तुलसीदास हिंदी साहित्य के ऐसे महान कवि हैं, जिनमें कला की पंगुता नहीं, बल्कि परिपक्वता समाहित है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के विश्लेषण में तुलसीदास का काव्य भाषा, संरचना, चरित्र-चित्रण और भावात्मक गहराई के मामले में अद्वितीय है। शुक्ल के अनुसार, तुलसी की अवधी भाषा जीवन के ताने-बाने से जुड़ी हुई है, यह न केवल सरल और स्वाभाविक है, बल्कि ओज-प्रवाह में भी समृद्ध है, जिससे उनका काव्य सामान्य जन के अनुभवों से बहुत ही निकटता में खड़ा होता है।

चरित्र-चित्रण की दृष्टि से, शुक्ल तुलसीदास को हिंदी काव्य का एक श्रेष्ठ “चरित्र-चित्रणकर्ता” मानते हैं। तुलसी के राम, सीता, हनुमान और रावण जैसे पात्र न केवल आध्यात्मिक और नीतिगत आदर्श हैं, बल्कि उनके चित्र में मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता और मानवीय गहराई भी है। युद्ध, वन-जीवन या भावों की उच्च तीव्रता में उनका वर्णन जीवंत और पठनीय है, जिससे पाठक न केवल कहानी का अनुसरण करता है, बल्कि उसके साथ भावनात्मक जुड़ाव भी महसूस करता है।

शुक्ल यह भी रेखांकित करते हैं कि तुलसीदास की कथा-संयोजना (composition) अत्यंत संगठित और उद्देश्यपूर्ण है। रामचरितमानस उनके लिए एक नैतिक और सामाजिक धारा को व्यक्त करता है, न कि केवल धार्मिक या भक्ति प्रधान रचना। 2तुलसी का काव्य एक नैतिक आदर्श प्रस्तुत करता है, और उनके अलंकार (रूपक, उपमा, अनुप्रास आदि) इस आदर्श को दर्शाने के लिए स्वाभाविक रूप से उपयोग किए गए हैं। अलंकार शुक्ल के अनुसार भावों के दास हैं, न कि दिखावे के साधन।

लय और संगीतात्मकता की दृष्टि से भी तुलसी का काव्य शुक्ल के लिए महत्वपूर्ण है। उनकी गद्यात्मक संरचना न होकर, काव्यात्मक प्रवाह में वह मधुरता और लय है, जो पाठक में गूंज बनकर रह जाती है। यह गुण उनके काव्य को न केवल पाठ्य रूप में बल्कि गान-योग्य विधा में भी प्रस्तुत करता है।

भाव-पक्ष में, शुक्ल तुलसीदास की भक्ति को लोकमंगलमुखी बताते हैं। उनकी भक्ति भावुक पलायनवाद की भेंट नहीं चढ़ती, बल्कि सामाजिक न्याय, नैतिकता और लोककल्याण की दिशा देती है। तुलसीदास के काव्य में करुणा, दया और सहानुभूति की धारा गहराई तक प्रवाहित है — यह केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि चरित्र-निर्माणात्मक है।

उन्हें आदर्शवाद का कवि माना जाता है, तुलसीदास का आदर्शवाद खामोशी से जीवन में नैतिकता और मर्यादा स्थापित करने का है। उनके राम आदर्श-मानव हैं, जिनमें नीति, मर्यादा और दया का संयोजन है। शुक्ल यह दृष्टि देते हैं कि तुलसी की भावनाएँ विविध हैं, लेकिन उनका संतुलन अद्भुत है: भक्ति, करुणा, वात्सल्य, निस्वार्थ सेवा, सब एक साथ प्रस्फुटित होते हैं, और वे पाठकों को न केवल भक्ति की ओर, बल्कि नैतिक जीवन की ओर भी प्रेरित करते हैं।

1इस प्रकार, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के दृष्टिकोण में, तुलसीदास का काव्य कला-पक्ष में व्यावहारिक सौंदर्य और तकनीकी परिपक्वता, और भाव-पक्ष में लोकमंगलमुखी भक्ति और नैतिकता का जीवंत मिश्रण है। यही वह विशेषता है जो तुलसीदास को हिंदी साहित्य की “परिपक्वता” (प्रौढ़ता) का प्रतीक बनाती है।

स्रोत

1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, “भक्तिकाल — तुलसीदास” खंड।
2. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, “काव्य में अलंकार” निबंध।

तुलसीदास का सामाजिक दृष्टिकोण

रामचंद्र शुक्ल, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह, ये सभी तुलसीदास की रचनाओं में एक ऐसा व्यापक सामाजिक-चिंतन देखते हैं, जो मध्यकालीन भारतीय समाज को नैतिकता, श्रद्धा और मनुष्यता के सूत्र में बाँधने का प्रयत्न करता है। रामचरितमानस उनके इस सामाजिक दृष्टिकोण का सबसे बड़ा प्रमाण है।

1. जाति व्यवस्था पर तुलसीदास की दृष्टि

रामचंद्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि तुलसीदास जाति के कट्टर समर्थक नहीं, बल्कि “व्यवस्था को नैतिक बनाने” वाले कवि हैं। मानस के शबरी-प्रसंग, निषाद-गृह प्रवेश, केवट संवाद, इन सभी को सामाजिक समानता की मिसाल बताते हैं।

राम के केवट से कहे शब्द-
मम लोक बसहि सुर-नर-कीरा।
शुक्ल के अनुसार तुलसीदास के समाज-दर्शन का आधार है:
सृष्टि में कोई नीच नहीं, कर्म ही गरिमा देता है।

आलोचक रामविलास शर्मा भी मानते हैं कि तुलसी जाति को ईश्वरीय दंड या दमन की संस्था नहीं, बल्कि कर्तव्य आधारित सामाजिक ढाँचा मानते हैं।
लेकिन इसमें श्रेष्ठता जन्म से नहीं, आचरण से आती है, यह बात तुलसीदास अनेक प्रसंगों में बार-बार स्थापित करते हैं।

2. स्त्री–पुरुष भूमिका

यह तुलसीदास की सबसे गलत समझी गई परत है। नगेन्द्र और नामवर सिंह दोनों इस बात पर ज़ोर देते हैं कि तुलसीदास का स्त्री-दर्शन किसी भी प्रकार स्त्री से द्वेष नहीं है, बल्कि गृहस्थ-धर्म पर आधारित नैतिक दृष्टि है।

सीता को वे भूमि की संतति, धैर्य, करुणा और नैतिक परिपक्वता का प्रतीक बनाते हैं।
नामवर लिखते हैं, तुलसीदास की स्त्री-छवि पारिवारिक संतुलन और नैतिकता की प्रतिनिधि है, न कि किसी सामाजिक बंधन की दासी।

लोक में प्रचलित ढोल-गंवार… जैसी पंक्तियों को रामचंद्र शुक्ल और नगेन्द्र दोनों ही तुलसी की नहीं, लोकजीवन की कठोर उक्तियाँ बताते हैं, जिन्हें तुलसीदास केवल समाज की वास्तविक आवाज़ के रूप में पुनःस्थापित करते हैं, उनकी अपनी स्त्री-दृष्टि इससे बिल्कुल अलग है।

3. शासन, राजनीति और नैतिकता

तुलसीदास का राजनीतिक आदर्श “रामराज्य” प्राचीन धर्मशास्त्रीय राजसत्ता की प्रतिलिपि नहीं है।
रामविलास शर्मा इसे “नैतिक शासन” का भारतीय मॉडल कहते हैं, जहाँ सत्ता का उद्देश्य धन-संचय नहीं, दुःख-निवारण है।

मानस का रामराज्य-वर्णन-
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
न केवल काव्य-सौंदर्य है; यह कल्याणकारी राज्य की कल्पना है।

शुक्ल के अनुसार यह वह समाज है

  • जहाँ नीति का आधार व्यक्ति का चरित्र है
  • जहाँ राजा स्वयं मर्यादा का पालन करता है
  • जहाँ राजकर्म सेवा है, प्रभुत्व नहीं

नगीन्द्र इसे “भारतीय जन-चेतना के आदर्श शासन का रूपक कहते हैं, एक ऐसा राज्य जहाँ शक्ति और करुणा बराबर चलते हैं।

4. तुलसीदास, कबीर और सूरदास – एक तुलनात्मक दृष्टि

कबीर और तुलसी

हज़ारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि कबीर संरचना-विमर्श और विद्रोह के कवि हैं। उनका स्वर तेज़, सीधा और संघर्षशील है। दूसरी ओर तुलसीदास

  • टकराव नहीं करते
  • व्यवस्था के भीतर मानवतावादी सुधार करते हैं
  • उन्मूलन नहीं, समन्वय चाहते हैं

रामविलास शर्मा कहते हैं
कबीर परिवर्तन की आग हैं, तुलसी उसका संतुलन।

सूरदास और तुलसी

नगेन्द्र का विश्लेषण साफ़ है सूरदास का काव्य भावप्रधान, अंतरंग और व्यक्तिगत है, जबकि तुलसीदास का काव्य सामूहिक, सामाजिक और नैतिक है।

सूर का प्रेम “बाल-लीला का कोमल संसार” है, तुलसी का प्रेम “धर्म, मर्यादा और कर्तव्य से प्रकाशित जीवन-संस्कार”।

नामवर सिंह लिखते हैं, सूर हृदय के कवि हैं, तुलसी जीवन के।

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