अपने समय के सबसे लोकतान्त्रिक कवियों में से एक 'धूमिल' अपनी कविताओं में सरकार से टक्कर लेते हुए दिखाई देते हैं, भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार करती हुई उनके "संसद से सड़क तक" कविता संग्रह में संकलित 'रोटी और संसद' में वे बात करते हैं उस तीसरे आदमी की जो न अनाज उगता है, न उसे कामात है, वह तीसरा सरकारी दफ्तरों में अलसाया हुआ आदमी है, वह तीसरा आदमी संसद के ऐसी में बैठ किसानों की ज़मीनों का msp तय करने वाला करूर नेता है, जो आदमी पूँजीवाद का फन फैलाए हुए गरीब की रोटी से खेल रहा है।
एक दूसरी कविता मोचीराम जिसमें एक मोची है कहता है
बाबूजी सच कहूँ—मेरी निगाह में
न कोई छोटा हैन कोई बड़ा है
मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता हैजो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है।
यहाँ व्यक्ति अपना काम की नज़र से दुनिया देख रहा है, जहां कोई भी एक जोड़ी जूते से बड़ा नहीं है। यानी उसके काम उसके लिए सर्वोपरि है। लेकिन कविता में आगे बढ़ते हुए नज़र आता है कि मोची ठगा हुआ है, जो मेहनताना का भी मोहताज है, कविता में मोची के लिए केवल दो जात है एक वो जो काम करती है दूसरी जो काम खाती है। जो बताती है की दमन केवल जाती के आधार पर ही नहीं है बल्कि इसके भी कई पहलू हैं।
अकवित आंदोलन में उभरे, सुदामा पांडेय 'धूमिल' (Dhumil) को मरणोपरांत 'साहित्य अकादमी पुरुस्कार' से सम्मानित किया गया। साठ के दशक में एक कवि जो अपने स्वर से ना सिर्फ़ दुनिया को अपनी नजर की दुनिया दिखाता है बल्कि कविता की तथाकथित परिभाषा से हटकर यथार्थ की कीचड़ से सने पन्नों को पढ़ने पर मजबूर करती है।
| जन्म | 9 नवंबर 1936, वाराणसी |
| मुख्य रचनाएँ | संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे, धूमिल की कविताएं, क़िस्सा जनतंत्र, मोचीराम आदि |
| पुरस्कार | साहित्य अकादमी पुरस्कार |
| मृत्यु | 10 फ़रवरी 1975 |
उनका मूल नाम सुदामा पांडेय था, 'धूमिल' उपनाम उन्होंने खुद चुना, वाराणसी के एक आम किसान परिवार में जन्मे धूमिल का विवाह 13 वर्ष की आयु में हो गया था, प्रारम्भिक शिक्षा के बारे में वे कुछ सोचे इससे पहले उनके पिता का देहांत हो गया और परिवार की जिम्मेदारी उनको उठानी पड़ी, जिसके लिए सबसे पहले उन्होंने कलकत्ता के एक लोह कारखाने में मजदूरी की इसके बाद उन्होंने ट्रैड कंपनी में काम किया। इससे इतर उन्होंने इलेक्ट्रिकल से आईटीआई डिप्लोमा भी किया, जिसके बाद वे एक अनुदेशक की नौकरी करने लगे। अपने जीवन में बार-बार नौकरी में फेर बदल के चलते व्यवस्था से उकता चुके धूमिल व्यवस्था और पूंजीवाद की संरचना के खिलाफ हो गए, जिसका सीधा प्रभाव उनकी कविताओं में देखा जा सकता है।
धूमिल की कविताओं में आने वाले शब्द इतने सामान्य हैं कि कविता में उनका प्रयोग ही उनके अस्तित्व को विशेष बनाता है उनकी कविता की लोकप्रियता का मूल कारण उनकी बिम्ब योजना रही है। उनकी कविता का सामान्यीकरण जो उनकी कविता को ड्रमैटिक बनाता है। जिस समय धूमिल कविता रच रहे थे, उस समय आजादी से मोहभंग का साहित्य अधिक रचा जा रहा था और धूमिल भी आजादी और पूंजीवाद से कुंठित थे, उनकी कविता सत्ता से सीधे लोहा लेने का दम रखती है। वह स्वयं आगाह करते हुए कहते हैं कि ‘‘शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण अलग-अलग है। शब्द अपने वर्ग-मित्रों में कारगर होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर।’’ अपनी कविताओं में आम जीवन के संघर्ष और उस संघर्ष से उपजे प्रतिशोध के स्वर हैं।
सहमति....
'धूमिल'
नहीं, यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिग़ों के बीच चालू मत करो’
—जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख
का इलाज नींद के पास है !
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था
विरोध के लिए सही शब्द टटोलते हुए
उसने पाया कि वह अपनी ज़ुबान
सहुआइन की जांघ पर भूल आया है;
फिर भी हकलाते हुए उसने कहा—
‘मुझे अपनी कविताओं के लिए
दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है’...
छंदविधान की दृष्टि से उनकी लगभग सभी कविताएं गद्यात्मक लय की ओर झुकी हुई हैं। कविता की एकरसता और लंबाई तोडने के उद्देश्य से वे पंक्तियों को छोटा-बडा करते हैं और तुकों द्वारा तालमेल एवं लय स्थापित करते हैं
धूमिल का रहन-सहन इतना साधारण था कि ब्रेन ट्यूमर के शिकार होकर 10 फरवरी, 1975 को वे अचानक मौत से हारे तो उनके परिजनों तक ने रेडियो पर उनके निधन की खबर सुनने के बाद ही जाना कि वे कितने बड़े कवि थे।
धूमिल के चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सम्मिलित हैं-
उपरोक्त कृति 'संसद से सड़क तक' का प्रकाशन स्वयं 'धूमिल' ने किया था व शेष का प्रकाशन मरणोपरांत विभिन्न प्रकाशकों द्वारा किया गया।